हमें अपने आप को पूर्णरूप से *भगवान की कृपा* पर आश्रित कर देना चाहिए , क्योंकि भगवान ने कृपा और प्रेम का प्रसार कर के ही जगत को ऊपर उठाने का भार स्वीकार किया है ! भगवान का प्रेम ही जगत के कल्याण के लिए परम शक्ति कृपा के रूप में प्रकट हुआ है ! केवल मनुष्य के भीतर ही नहीं अपितु अत्यंत अंध - जड़ प्रकृति के समस्त आबूओं में इसने अपने आप को उड़ेल दिया है , जिससे यह संसार को मूल परम सत्य की ओर फिर से ला सके ! इसी अवतरण को भारतीय धर्म शास्त्रों में परमयज्ञ कहा गया है !
*कृपा भगवान की व्यापक ,*
*सकल जग में दिखाती है !*
*अहम् के मोटे पर्दे को ,*
*कृपा करके हटाती है !!*
*न कोई जान पाता है ,*
*किधर से कैसे आती है !*
*कृपादेवी की कृपा हर क्षण ,*
*स्वयं जग में लुटाती है !!*
(स्वरचित)
कृपा ही प्रेम है , जो संपूर्ण जगत् में व्याप्त होकर अधिकतम बलशालिनी पराशक्ति के रूप में अहम के मोटे पर्दे के पीछे से कार्य कर रहा है ! प्रचलित धारणा तो यह है कि कृपा कुछ ऐसी वस्तु है जो अचानक ही आती है , वह कहां से आती है यह मालूम नहीं होता और आश्चर्यमय परिणाम उत्पन्न करके पुनः वहां लौट जाती है ! यह तो कृपा के कार्य का अचानक घटित होने वाला बाहरी परिणाम मात्र है , किंतु जगत के सदस्य तो प्राणी मात्र के अंदर इसकी सतत क्रियाशील उपस्थिति का दर्शन नहीं है ! कृपा तो सभी प्राणियों , वस्तुओं और घटनाओं में सर्व विद एवं सर्व संचालक प्रेम के रूप में विद्यमान है और इसकी सशक्त क्रिया से लाभान्वित होने के लिए श्रद्धा एवं विश्वास के साथ इसकी ओर झुकना ही पर्याप्त है !
*भगतन हित भगवन्त कृपा करि ,*
*समदरसी कर रूप देखावैं !*
*रूप समान से सकल सृष्टि पर ,*
*नाथ कृपा अपनी बरसावैं !!*
*सृष्टि के हम ये है सृष्टि हमारी ,*
*अपनी प्रतिज्ञा सतत् दोहरावैं !*
*"अर्जुन"अजान बनि मूरख नादान बनि ,*
*भगवत्कृपा के तत्व जानि नहीं पावैं !!*
(स्वरचित)
कृपा सबके लिए एक समान है , परंतु प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने भाव के अनुसार ग्रहण करता है ! यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर न करके सच्ची अभीप्सा और उद्घाटन पर निर्भर करती है ! जो लोग किसी भौतिकवादी झुकाव से प्रभावित नहीं हुए हैं , जिनका अंतः करण कामनाओं की कालिमा से नितांत अछूता है और जिनका हृदय आध्यात्मिक रहस्यों के प्रति सूक्ष्मतया ग्रहणशील है यह जीवन की घटना चक्रों में कृपा की रहस्यमयी क्रिया का कुछ बोध कर सकते हैं किंतु जो लोग आध्यात्मिक जीवन का , प्रधानतया योग - जीवन का अनुसरण करते हैं वे तो इस ठोस तथ्य को जानते ही होंगे कि वाह्यरूपों के पीछे विद्यमान यह अनंत , आश्चर्यमयी , सर्वशक्तिमयी कृपा प्रत्येक वस्तु को सुसंगठित और व्यवस्थित करती है और हम लोगों के चाहने अथवा ना चाहने , जानने अथवा ना जाने पर भी हम लोगों को चरम लक्ष्य की ओर ही ले जा रही है ! *भगवत्कृपा* संसार में आसक्त हुए लोगों को विकास मार्ग पर आरुढ़ रख रही है ! जब हम लोग बहक कर भटक जाते हैं , हमारी अंतर्दृष्टि मलिन पड़ जाती है और हृदय की अग्नि मंद पड़ जाती है तब भी *कृपा शक्ति* हमें सुदूर प्रकाश की ओर संकेत करती रहती है और हमारे कानों में कहती रहती है :---
*"अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:"*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगी तो शौक मत कर ! जब हम किसी उत्तेजना पूर्ण इच्छा से उद्वेलित हो अथवा किसी वासना या भ्रांति से अंधे होकर भागवत संकल्प के विरुद्ध विद्रोह करते हैं , तब अनिष्ट एवं विपत्ति द्वारा कृपा हमारा मार्गदर्शन करती है , और तीव्र वेदना के द्वारा हमें सजग करती है जिससे इच्छा या भ्रान्ति पीड़ा की अग्नि में जलकर विलीन हो जाय और हम लोग पुनः भगवान की प्रसारित भुजाओं की ओर मुड़ सकें ! यदि कृपा का चाप हमारी सत्ता के वक्र और निर्बल भागों पर कभी-कभी बोझरूप और पीड़ामय हो जाता है तो यह केवल भगवान के "भार" को सहन करने के हेतु हमें पर्याप्त सबल और सीधा बनाने के लिए ही होता है ! यह *विशेष भगवत्कृपा* होती है !