गीता$मृतरूपा *भगवत्कृपा* का प्रत्येक अध्याय के अनुसार अवलोकन किया जाय तो *कृपापूर्वक* भगवान का अर्जुन के सामने अपने आप को विशेषता से प्रकट करना और अर्जुन के मन में क्रमश: भगवान के प्रति विशेष आदर एवं श्रद्धा भाव का वर्णन दृष्टव्य है ! *इसी दृष्टि से प्रत्येक अध्याय के कतिपय कृपापरक स्थलों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास है !*
मोहग्रस्त अर्जुन ज्यों ही अपने को मोहितचित्त स्वीकार करते हैं और कल्याण कारक साधन पूछते हैं त्यों ही भगवान करुणा करके साधारण जन की भाषा में मुस्कुराते हुए उपदेश आरंभ कर देते हैं :- *दूसरे अध्याय के ११वे ३०वें श्लोक तक* भगवान ने सत्-असत् का विवेचन किया किंतु इस प्रसंग में उन्होंने ब्रह्म , विद्या , माया , ईश्वर , प्रकृति , जीव , अनात्मा , अधिभूत , आधियज्ञ आदि दार्शनिक शब्दावली का प्रयोग किया ही नहीं इस विवेचन में देह - देही , शरीर - अशरीर , नित्य - नाशवान जैसे सामान्य जन की समझ में आने वाले शब्दों का ही प्रयोग हुआ है ! *तात्पर्य यह है कि गीता मनुष्यमात्र (चाहे वह अपढ़ हो या विद्वान , मूर्ख हो या बुद्धिमान सब) के लिए कल्याण की दृष्टि से कही गई है !* यह मानवमात्र पर *विशेष भगवत्कृपा* है ! पहले अध्याय के ३१वें श्लोक में अर्जुन जहां कहते हैं कि:--
*न च श्रेयो$नुपश्यामि*
*अर्थात् :-* युद्ध में श्रेय नहीं देख रहा हूं वहीं दूसरी अध्याय के सातवें श्लोक में निश्चित श्रेय के लिए पूछ रहे हैं:--
*यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे*
इस प्रसंग को देखने के बाद एक बात तो यह सिद्ध होती है कि अर्जुन मारने से डर रहे हैं मरने से नहीं ! इसलिए भगवान ने उनके हृदय से मारने का भय निकालने की भावना और कर्तव्य दृष्टि से ही कहा:-
*धर्म्याद्धि युद्धच्छ्रेयो$न्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते*
*अर्थात:-* क्षत्रिय के लिए धर्म युद्ध युद्ध से बढ़कर कल्याणकारी दूसरा कोई कर्तव्य ही नहीं है ! फिर भी अर्जुन अभी तक मोहित हैं और पुनः प्रश्न करते हैं:--
*तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयो$हमाप्नुयाम्*
*अर्थात :-* अर्जुन पूछते हैं कि मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा ? आप यह बताने की कृपा करें ! इस प्रश्न को सुनकर अर्जुन पर *भगवत्कृपा* बरस पड़ी और भगवान ने कृपा कर कर्तव्य पालन को ही परम कल्याण कारक बताया:--
*श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् !*
*स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः !!*
*अर्थात्:-* रागद्वेषयुक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है और परधर्म को भी धर्म होने के नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है ! परंतु उसका ऐसा मानना भूल है अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंग प्रत्यंगों सहित सम्पादन किये गये भी परधर्म की अपेक्षा गुणरहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याणकर है अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है ! परधर्म में स्थित पुरुष के जीवन की अपेक्षा स्वधर्म में स्थित पुरुष का मरण भी श्रेष्ठ है क्योंकि दूसरे का धर्म भयदायक है नरक आदि रूप भय का देनेवाला है ! *भगवत्कृपा* की यह विशेषता है कि वह भक्त पर स्वमेव बरसने लगती है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए अर्जुन की भाँति अपने जीवन की डोर परमात्मा के हाथ सौंपने की आवश्यकता है ! जैसे :--
*जब मोह के बन्धन पार्थ बंध्यो ,*
*तब भगवत्कृपा तुरत उमड़ाई !*
*कर्तव्य के पथ से विरत भयेउ ,*
*तब कीन्हीं कृपा श्री कृष्ण कन्हाई !!*
*शरणागत भक्त की देखि दशा ,*
*सब ज्ञान कै सागर दीन्हि लुटाई !*
*"अर्जुन" कृतकृत्य भयेउ मन में ,*
*यदुनाथ के हाथ में हाथ गहाई !!*
(स्वरचित)
जो अर्जुन मोहाशक्ति के कारण अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे थे उन्हें भगवान सहज धर्मयुद्ध कर्तव्य में अारुढ़ करने के उद्देश्य उपदेश दे रहे हैं ! यह ऐसी *भगवत्कृपा* है जिसकी अर्जुन ने कभी वाञ्छा और जिज्ञासा भी न की थी ! भगवान का स्वभाव ही *अहैतुकी कृपा* करना है !