बिना प्रभु परायण बने *भगवत्कृपा* नहीं हो सकती ! *अब प्रश्न ये उठता है कि प्रभु परायण कैसे बना जाय ?* और संतमत से यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र और फल भोगने में परतंत्र है ! भगवत्प्राप्त्यर्थ साधन करना , जन्म मरण से मुक्त होने के प्रयत्न में लगना और उस सुख स्वरूप परमात्मदेव का वह परमधाम , जहां जाने पर लौट कर नहीं आना होता प्राप्त कर लेना ही मनुष्य के कर्म और पुरुषार्थ की इति है ! इसी कार्य के लिए मनुष्य जन्म मिला है और इस ध्येय तक पहुंचने के लिए प्रभुप्रदत्त शक्ति और स्वतंत्रता भी प्राप्त है , फिर भी यदि अपनी शक्ति को भूलकर तथा प्रमाद आलस्य और विलासिता में पड़कर मनुष्य अपने को सब उद्देश्य प्राप्ति से विरक्त रखता है तो यह उसी का अपना दोष है ! गोस्वामी जी महाराज कहते हैं :--
*बड़े भाग मानुष तन पावा !*
*सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हिं गावा !!*
*साधन धाम मोक्ष कर द्वारा !*
*पाइ न जेहिं परलोक संवारा !!*
*सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछताइ !*
*कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाइ !!*
(मानस)
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि प्रायः लोग मूर्खता बस अपने कर्तव्य कर्मों को *भगवत्कृपा* के तथाकथित आश्रय पर छोड़कर आलसी बन बैठते हैं और इस पारसमणि रूपी मानव जीवन को नष्ट कर देते हैं ! फिर वह समय भाग्य और ईश्वर को अपनी दुर्गति का कारण कहते हुए पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं ! *अब हमें भगवत्कृपा के सत्स्वरूप की ओर भी दृष्टि डालना है !* जो देश काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित तथा विश्वव्यापी है और प्राणी मात्र पर समान रूप से बरस रही है ! कल्पना करें एक ऐसे पथभ्रष्ट पथिक की जो अपने घर का मार्ग छोड़कर कण्टकाकीर्ण पथ में पड़ गया हो ! जहां उसे चारों ओर भीषण अंधकार ही दृष्टिगोचर होता है , भयंकर जीव जंतुओं के गर्जन शब्द उसको भयभीत और व्याकुल बना रहे हों , ऐसी दशा में वह विलाप - कलाप करता हुआ भटकता फिरता हो और उसे किसी प्रकार भी निर्दिष्ट मार्ग न सूझता हो , ऐसी दयनीय दशा को प्राप्त उस बटोही को यदि कोई सहृदय महापुरुष कृपा कर सुझाव दे दे कि:- ऐ भोले बटोही ! तू कहां मारा मारा फिरता है , तेरा मार्ग तो इधर है ! आजा मेरे पास मैं तुझे तेरे मनोनीत स्थान पर पहुंचा दूंगा ! तो इस प्रकार अकारण ही ठीक ठीक निर्दिष्ट मार्ग बता देना *कृपा का स्वरूप* हुआ ! ठीक इसी प्रकार भवसागर के पाप - ताप पीड़ित हो तथा मोह - शोकादि के थपेड़ों में संतप्त प्राणी के लिए भगवान अपना पावन आदेश देकर इस दुखद जंजाल से मुक्त होने के युक्ति तथा सुखस्वरूप स्वधाम पहुंचने का मार्ग बतलाते हैं ! और यह तो भगवान की घोषणा ही है कि :--
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज !*
*अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर ! अहा ! *प्रभु की कैसी अकारण करुणा है , कैसे दयापूर्ण शब्द हैं :-* ऐ भोले भाले बटोही ! तू क्यों ताप से संतप्त होकर क्लेश उठा रहा है , आजा मेरी शीतल छाया में , छोड़ दे नादानी को , मत घबरा अपने पापों से , क्या तू मेरी अटल प्रतिज्ञा को भूल गया कि :--
*सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं !*
*जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं !!*
( मानस )
यह *भगवत्कृपा* ही है कि भगवान स्वयं कहते हैं कि :- आजा , देर मत कर ! बिना यहां आए तेरा क्लेशों से मुक्त हो पाना नितांत असंभव है ! बस जीव इस प्रकार सचेत करना ही *भगवत्कृपा* है जिससे ना कोई वंचित है ना कोई स्थान खाली है ! भगवान तो कल्पतरू सदृश हैं यदि मानव उनके कृपारूप आदेश पर पूर्ण विश्वास करके उनकी शरण में पड़ जाय तो उद्धार होना निश्चित ही है ! अन्यथा वह सूकर - कूकर नीचाति-नीच योनियों मैं कप्मफल भोगता हुआ भटकता ही रहेगा ! हमें सर्वकाल और सर्वस्थानों में अपने ऊपर *भगवत्कृपा* का पूर्ण अनुभव करते हुए , प्रमाद - आलस्य को छोड़ , विषयों से चित्त को मोड़ कर शीघ्र ही अपने मन की डोर को भगवत्पदारविंदं में जोड़ देना चाहिए !