संसार के लोग जिसे काव्य समझते हैं वह सारी वस्तुएं उन साधनों के लिए त्याज्य हैं ! यहां जो कुछ श्रेष्ठ माना जाता है उस मन:स्थिति को प्राप्त जन के लिए वे सभी हानिकर ही है ! लोक में जिसे उन्नति समझा जाता है वह उसके लिए अवनति का मूल स्रोत है ! इतना ही नहीं अलौकिक बुद्धि जिसे ईश्वर की प्रतिकूलता का प्रतीक समझती है वह रुग्णता , पारिवारिक संकट , अपमान और निर्धनता ही तो परमार्थिक उन्नत का मुख्य साधन बन जाती है ! आवागमन की चक्र में फंसे हुए जीवों के उद्धार की जगन्नियंता ने यह विचित्र पद्धति बना रखी है ! यही *भगवत्कृपा* की बिचित्रता है कि :---
*ईश्वर छोरें जाहि को , तासु पुत्र धन लेयँ !*
*अरु डारैं अपमान करि , रोग वृद्धि करि देयँ !!*
*रोग वृद्धि कर देयँ , रहे नहिं कोई आशा !*
*लोग निरादर करें , ह्रदयं महँ होइ प्रकाशा !!*
*यह विधि लावै सरन निज , रहे कमल पर सेय !*
*ईश्वर छोरैं जाहि को , तासु पुत्र धन लेयँ !!*
वेद - पुराण , काव्य ग्रंथ तथा संत चरित्र ऐसी गाथाओं से ओतप्रोत हैं जिनमें *भगवत्कृपा* की इस अलौकिक स्वरूप का निदर्शन तथा गुणगान हुआ है ! *कबीरदास जी* कहते हैं :--
*सुख के माथे सिल पड़ो , जो नाम हरी का जाय !*
*बलिहारी वा दु:ख की , पल-पल नाम रटाय !!*
गोस्वामी तुलसीदास जी *भगवत्कृपा* के विविध रूपों का विवेचन करते हुए दु:खात्मिका परिस्थितियों को अंत:शुद्धि का साधन मानकर उनकी सृष्टि में नियामक का आयोजन स्पष्ट करते हुए कहते हैं :--
*राम कृपा भाजन तुम्ह ताता !*
*हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता !!*
*ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ !*
*परम रहस्य मनोहर गावउँ !!*
*सुनहु राम कर सहज सुभाऊ !*
*जन अभिमान न राखहिं काऊ !!*
*संसृत मूल सूलप्रद नाना !*
*सकल सोक दायक अभिमाना !!*
*ताते करहिं कृपानिधि दूरी !*
*सेवक पर ममता अति भूरी !!*
*जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई !*
*मातु चिराव कठिन की नाईं !!*
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*जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर !*
*ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर !!*
(मानस)
पुत्र के शरीर में फोड़ा हो जाने पर माता उसे शल्य चिकित्सक के पास ले जाती है और हृदय कठोर करके उसका ऑपरेशन कराती है ! बच्चा दर्द से तड़फड़ाता है किंतु रोग की आत्यंतिक निवृत्ति से प्राप्त होने वाले भावी सुख को दृष्टि में रखते हुए माता बालक के तात्कालिक कष्ट पर ध्यान नहीं देती ! भक्तवत्सल भगवान भी यही रीत अपनाते हैं ! इससे अल्पज्ञता के कारण साधक को आरंभ में तो कुछ कष्ट होता है किंतु इससे उसके जन्म जन्मांतर के संचित एवं प्रारब्ध मल नष्ट हो जाते हैं , और कालांतर में उसे ऊर्ध्व स्थिति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है , परंतु जो साधना में नए होते हैं वह *भगवत्कृपा* के इस विचित्र रूप को नहीं समझ पाते और कुछ दिन साधना करने के बाद *भगवत्कृपा* को कष्टसाध्य मानकर साधना करना बंद कर देते हैं ! *भगवत्कृपा बड़ी विचित्र है* इसकी विचित्रता एवं विविधता को समझ लेने के बाद ही साधक *भगवत्कृपा* का पात्र बन सकता है