जीव संसार में अपने कर्मबंधनों से बंधा हुआ है ! इन कर्मबंधनों का मूल मंत्र ममता एवं कामना में है !
*जब हो पूर्ण समर्पण मन से ,*
*कटें कर्मबन्धन तत्काल !*
*सकल कामना ममता मिटती ,*
*अहंभाव का कटता जाल !!*
*जैसे घास का ढेर जलाती ,*
*एक चिनगारी क्षण भर में !*
*वैसे कर्मों के बन्धन को ,*
*नष्ट कृपा करती पल भर में !!*
(स्वरचित)
ईश्वर को सर्वांगरूप से समर्थन करते ही साधक कर्मफलों से विमुख हो जाता है एवं उन कर्मफलों के प्रेरक कारण - कामना , ममता एवं अहं के मूल भी सूख जाते हैं ! परिणाम होता है उसके कर्मबंधन समाप्त हो जाते हैं ! *जैसे* घास के बहुत बड़े ढेर को एक छोटी सी चिंगारी भस्मसात् कर देती है वैसे ही *भगवत्कृपा* का लेशमात्र जन्म जन्मांतर के कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है ! ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित होने में ही जीवन की परिपूर्णता है !
*भगवत्कृपा की प्राप्ति हित , छोड़ो सब अज्ञान !*
*पूर्ण समर्पण भाव से करो सदा गुणगान !!*
(स्वरचित)
भक्त जब अपनी बुद्धि एवं प्राण को पूर्णतया *भगवत्कृपा* के प्रति उन्मुक्त कर देता है तब *भगवत्कृपा* अवतरित होकर उसमें दिव्य ज्ञान , प्रेम , शांति , पवित्रता , ज्योति तथा शक्ति भरकर उसको दिव्य बना देती है , एवं भगवत्यंत्र के पुर्जे के रूप में भगवद्कार्य की सिद्धि के लिए उसका उपयोग करती है ! *भगवत्कृपा* तो सर्वत्र सर्वदा बरस रही है एवं सब के मंगल तथा मुक्ति के लिए कार्य कर रही है आवश्यकता इस बात की है कि हम उसके कार्य में बाधक न बनें ,
*जब समर्पित हृदय हो प्रभु को ,*
*तब बढ़ेगी ललक उस कृपा की !*
*मन में संशय - अश्रद्धा हुई तो ,*
*न मिलेगी झलक उस कृपा की !!*
(स्वरचित)
उसके प्रति संशय या अश्रद्धा करने से उसकी ओर से मुख मोड़ लेने से हम अपने तथा *भगवत्कृपा* के कार्य में अवरोध पैदा कर देते हैं ! ईश्वर मनुष्य को पशुवत् खींच कर नहीं ले जाते उन्होंने मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा शक्ति एवं अच्छा बुरा पहचानने की बुद्धि -- विवेक बुद्धि दी है ! जीवन कठपुतली नहीं है और ना ही यंत्र की भांति जड़ ही है उसे ईश्वर कृपा को अपने अंदर कार्यसाधन करने देने के लिए सहर्ष सहमति देनी होगी ! इस सहमति का रूप है ईश्वरानुग्रह में श्रद्धा - विश्वास तथा अपने आपको *भगवत्कृपा* के पूर्णतया अधीन मान लेना !
*बाधक भगवत्कृपा में असत् कपट अज्ञान !*
*इसे त्याग कर मूर्ख मन , कर ईश्वर का ध्यान !!*
(स्वरचित)
इसके बाद *भगवत्कृपा* के कार्य में बाधक असत्य , कपट , अज्ञान एवं अन्य आसुरी भावों को अपने अंदर से तथा आसपास के वातावरण से दूर करते रहना ! जीव के संकल्प , समर्पण , सच्चाई , विश्वास आदि से ही *भगवत्कृपा* की नींव पड़ेगी ! भागवत जीवन के भवन का निर्माण संभव है ! साधक में जिस अनुपात में विश्वास , सत्यता , भक्ति , अनासक्ति , समर्पण और अभीप्सा बढ़ती जाएगी उसी अनुपात से *भगवत्कृपा* भी उसमें अधिकाधिक मात्रा में अवतरित हो अपना कार्य करने लगेगी ! समर्पण की पूर्णता के साथ ही साधक भी पूर्णतया *भगवतकृपामय* हो जाएगा भगवान के हाथ का यंत्र बन जाएगा ! और जीवन में सर्वदा मंगल ही मंगल होगा !