अर्जुन भगवान के समक्ष ना तो पूरी तात्विक विवेचन सुनने की इच्छा व्यक्त की और ना ही धर्म संबंधी कोई जिज्ञासा की की उन्होंने तो भगवान से इतना ही कहा था :--
*यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् !*
*कैर्मया सह योद्धव्यम्अस्मिन्रणसमुद्यमे !!*
(भगवद्गीता)
*अर्थात:-* हे कृष्ण! जब तक मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है (तब तक रथ को यहीं खड़ा रखिये) इस प्रकार अर्जुन तो युद्ध के लिए संनद्ध हैं ! अपने से युद्ध करने वाले राजाओं को वह देखना चाहते हैं ! *ऐसे अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश करना भगवत्कृपा नहीं तो और क्या है ?* भगवान ने अर्जुन का रथ उनकी आज्ञा से दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर खड़ा कर दिया ! उन्होंने रथ ऐसे स्थान पर खड़ा किया जहां भीष्म और द्रोण विद्यमान थे ! फिर वह बोले :- हे पार्थ ! युद्ध के लिए आए हुए इन कुरुवंशियों को देखो:-
*उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति*
(भगवद्गीता)
यहां भगवान के द्वारा कुरुवंशियों को देखने के लिए कहना भी अर्जुन को अपनी कौटुम्बिक स्नेह में बांधने की युक्ति ही है ! अन्यथा भगवान कह सकते थे *धार्तराष्ट्रान् समानिति* अर्थात:- युद्ध भूमि में एकत्रित इन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखो ! रथ को भीष्म और द्रोण अर्थात पितामह और गुरु जैसे आदरणीय जनों के सम्मुख खड़ा करना और फिर यह कहना कि कुरुवंशियों को देखो *भगवान के विशिष्ट प्रयोजन की ओर इंगित करता है !* वस्तुतः संसार में दो प्रकार के संबंध ही मुख्य माने गए हैं :- *१- योनि संबंध :-* जिसके अंतर्गत माता , पिता , पितामह , भाई , मामा , नाना आदि संबंधी आते हैं ! *२- विद्या संबंध :-* अर्थात आचार्य अथवा गुरु का संबंध ! अर्जुन प्रथमत: इन दोनों संबंधों को देखकर ही मोहाबिष्ट हो युद्ध करने से हिचकिचाये और कह पड़े :--
*कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन !*
*इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन !!*
*अर्थात्:-* अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ ? क्योंकि हे अरिसूदन ! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं ! *विचार कीजिए* यदि दुर्योधन या कर्ण के सम्मुख रथ खड़ा किया जाता तो निश्चय ही अर्जुन के हृदय में युद्ध का उत्साह और शौर्य उत्पन्न होता पर दोनों आदरणीय जनों के सामने रथ खड़ा करने में अर्जुन को ऐसा प्रतीत हुआ कि इन गुरुजनों की हत्या में कैसे कर सकूंगा ? उधर वंश के नाश का दृश्य सामने उपस्थित हो आया ! अतः अर्जुन के मन का मोह प्रकट हो गया ! इस मोह को जागृत करना ही *भगवत्कृपा* का उपक्रम था ! मोह के कारण उन्होंने युद्ध करने से इंकार कर दिया फलस्वरूप भगवान ने कृपा करके अर्जुन को निमित्त बनाकर गीता$मृत का ऐसा उपदेश दिया जिससे अनंत मोहबिष्ट जीवन का कल्याण अनन्तकाल तक होता रहेगा ! सनातन धर्म पर यह *विशेष भगवत्कृपा* ही तो है ! मोहाबिष्ट और विषादयुक्त अर्जुन बोले :- हे कृष्ण ना तो मुझे विजय चाहिए , ना राज्य और ना सुख ! मैं ऐसा युद्ध नहीं करता ! मुझे नि:शस्त्र को धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो यह भी मेरे लिए कल्याणकारक होगा ! ऐसा कहकर वे रथ के पिछले भाग में शोकाबिष्ट होकर बैठ गए ! उस समय उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए भगवान कुछ तीखे वचन कहते हैं :- हे अर्जुन ! कायरता को छोड़ दो अरे उत्साहित होने के समय तुम में यह मोह कैसे उत्पन्न हो गया ! हृदयं की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ ! भगवान ने उद्बोधन केवल *कृपा दृष्टि* से ही किया अन्यथा यह भी कह सकते थे कि युद्ध नहीं करना चाहते हो तो ना करो ! भगवान के हृदय में उसी प्रकार करुणा उमड़ रही थी जैसे बछड़े को देखते ही गाय के स्तनों में दूध निकल पड़ता है ! वह अर्जुन का कल्याण चाहते हैं ! साधारण मनुष्यमात्र की जैसी मन:स्थिति होती है वैसी ही मन:स्थिति का ध्यान रखते हुए गीता का उपदेश करना *विशिष्ट भगवत्कृपा* का एक विलक्षण उदाहरण है !