*भगवतकृपा* के महत्व का वाणी के द्वारा पूर्ण रूप से वर्णन किया जाना संभव नहीं है क्योंकि भगवान की दया का महत्व अपार है और वाणी द्वारा जो कुछ कहा जाता है वह थोड़ा ही होता है ! *भगवत्कृपा* के रहस्य को जो कोई महापुरुष यत्किंचित समझते हैं वह भी जितना समझते हैं उतना वाणी द्वारा बता नहीं सकते ! *भगवत्कृपा* सब जीवो पर सदा सर्वदा अपार है , लोगों का इस विषय में जितना अनुमान है उससे भी कहीं अधिक *भगवत्कृपा* लोगों पर होती है ! वास्तव में *भगवत्कृपा* सभी प्राणियों पर बिना किसी कारण के समभाव से सदा ही स्वाभाविक है , अतः उसे *निर्हेतुक* ही कहना चाहिए परंतु जो मनुष्य भगवान की कृपा पर जितना अधिक विश्वास करता है , अपने पर जितनी अधिक कृपा मानता है वह उनकी दया का तत्व उतना ही अधिक समझता है तथा उसे उतना ही अधिक प्रत्यक्ष लाभ मिलता है ! इसलिए उसको *सहेतुक* भी कहा जा सकता है , किंतु भगवान का इसमें अपना कोई हेतु नहीं है ! भगवान तो सर्वथा पूर्णकाम , सर्वशक्तिमान एवं महान ईश्वर हैं ! उनमें किसी प्रकार की कामनाया इच्छा की कल्पना ही कैसे हो सकती है ! जिससे उनकी कृपा में किसी प्रकार से स्वार्थ रूप हेतु को स्थान मिल सके ! वह तो स्वभाव से ही बिना कारण परम कृपालु हैं , सबके सुहृद हैं ! उनकी समस्त क्रियायें संपूर्ण जीवो के हित के लिए ही होती है ! यह *भगवत्कृपा* ही है कि वे *अकर्ता होते हुए भी वे दयावश जीवो की हित की चेष्टा करते हैं , अजन्मा होते हुए भी साधु पुरुषों का उद्धार , धर्म का प्रचार और दुष्टों का संहार करने के लिए एवं संसार में अपनी पुनीत लीला का विस्तार कर लोगों में प्रेम और श्रद्धा का संचार करने के लिए वे समय-समय पर अवतार धारण करते हैं , निर्गुण निराकार और निर्विकार होते हुए भी वे अपने भक्तों के प्रेम में अधीन होकर के सगुण और साकार रूप दर्शन देने के लिए बाध्य होते हैं , सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वथा स्वतंत्र होते हुए भी प्रेम से द्रवित होकर भक्तों के अधीन हो जाते हैं* इन सब में उनकी *निर्हेतुकी* परम कृपा ही कारण है ! जो भगवान को प्राप्त हुए भगवत भक्त हैं , जो *भगवत्कृपा* के महत्व को समझ गए हैं , जिनमें उन *कृपामय* परमेश्वर की कृपा का अंश व्याप्त हो गया है उन महापुरुषों का भी अन्य जीवो से किसी प्रकार के स्वार्थ का संबंध नहीं रहता , उनकी समस्त क्रियाएं केवल लोकहित के लिए , किसी प्रकार के स्वार्थरूप हेतु के बिना ही होती है ! जब महापुरुषों की यह स्थिति है तब फिर *भगवत्कृपा* हेतु रहित हो इसमें तो कहना ही क्या है ! महापुरुषों का किसी भी जीव के साथ किसी प्रकार का स्वार्थ संबंध नहीं रहता है इस विषय में स्वयं भगवान कहते हैं :--
*नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कञ्चन् !*
*न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: !!*
(गीता/३/१८)
*अर्थात्:-* उस महापुरुष का विश्व में ना तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और ना कर्मों के ना करने से ही ! संपूर्ण प्राणियों में भी उसका किंचित्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता तो भी उसके द्वारा लोकहित्तार्थ कर्म किए जाते हैं ! *यह तो भगवान ने महापुरुषों के लिए कहा है स्वयं भगवान अपने लिए क्या कहते हैं !* यह भी देख लिया जाए:-
*न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन !*
*नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि !!*
(गीता/३/२२)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं:- हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्मों में ही बरतता हूं ! इसी विषय पर गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं :-
*हेतु रहित जग जुग उपकारी !*
*तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी !!*
*स्वारथ मीत सकल जग माहीं !*
*सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं !!*
(मानस)
गोस्वामी जी के इस कथन से सिद्ध हो जाता है कि :- महापुरुषों का और भगवान का कोई कर्तव्य और प्रयोजन ना रहते हुए भी लोगों को उन्मार्ग से बचाने के लिए एवं नीति धर्म और ईश्वरभक्तिरूप सन्मार्ग में प्रेरित करने के लिए उनके द्वारा केवल लोकहितार्थ सब क्रियाएं हुआ करती हैं ! इसमें उनकी *अपार कृपा ही कारण है !* परम कृपालु और सर्वशक्तिमान होते हुए भी समदर्शी और नि:स्पृह होने के कारण भगवान के द्वारा अपने आप कोई क्रिया नहीं की जाती ! श्रद्धा प्रेम पूर्वक शरणागत होने से भक्तों के हित के लिए ही उनमें क्रिया का प्रादुर्भाव और उनकी कृपा का विकास होता है ! यह *भगवत्कृपा* का रहस्य है |