ईश्वर का अनुग्रह या *भगवत्कृपा* तब प्राप्त होती है जब हम उसको प्राप्त करना चाहते हैं ! भगवान हमको तभी देखते हैं जब हम भगवान को हृदय से देखने का प्रयास करने लगते हैं !जब तक मनुष्य भगवान को याद नहीं करता तब तक भला भगवान की दया कैसे प्राप्त हो सकती है ! यदि मन में यह इच्छा है कि भगवान अपना वरदहस्त हमारे ऊपर करें तो सबसे पहले मन वचन एवं से निर्मल होकर उनकी ओर हमें स्वयं बढ़ना पड़ेगा !
*यदि दया की इच्छा है प्रभु से ,*
*तो प्रभु को प्रतिपल याद करो !*
*मन में संशय कुछ भी न करो ,*
*मत कोई व्यर्थ विवाद करो !!*
*जब अपनी बात सुने न कोई ,*
*तो सीधे प्रभु से संवाद करो !*
*"अर्जुन" परपंच में फंस करके ,*
*अनमोल समय न बरबाद करो !!*
(स्वरचित)
जब उठते - बैठते , खाते - पीते , सोते - जगते भगवान की याद करते रहोगे तो भगवान को दया करनी ही पड़ेगी ! यदि *भगवत्कृपा* की कामना है तो मन में भगवान के प्रति संशय (भगवान हैं या नहीं ? सुनेंगे या नहीं ? दया करेंगे या नहीं ? ) पाल करके अपने मन में इस प्रकार विवाद नहीं करना चाहिए ! कभी - कभी मनुष्य बहुत कुछ कहना चाहता है परंतु घर - परिवार / संसार के लोग उसकी एक भी बात नहीं सुनना चाहते ऐसी स्थिति में मनुष्य को अपनी बात भगवान से कहकर आन्तरिक संवाद स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए ! संसार के झूठे प्रपञ्चों में फंसकर यह अमूल्य मानव जीवन का एक भी पल व्यर्थ बरबाद न करके प्रतिपल *भगवत्कृपा* की कामना करते रहना चाहिए ! मनुष्य को *भगवत्कृपा* का तत्काल उत्तर तब मिलता है जब उसको अपना सब कुछ नष्ट हुआ दीखने लगता है ! सभी साधन एवं शक्तियां समाप्तप्राय हो जाती हैं अर्थात साधनों का आश्रय मिट जाता है ! अहंकार नष्ट हो जाता है एकमात्र भगवान ही उसे परमबंधु एवं रक्षक दिखलाई पड़ते हैं ! तब वह परम दीन हो अत्यंत आर्त्तभाव से प्रभु को पुकारता है ! करुणा एवं विह्वलता से परिपूर्ण रोम-रोम से उठी आर्त्तपुकार का उत्तर भगवान तुरंत देते हैं निमिषमात्र में भगवान की रक्षाकारिणी अनुग्रह शक्ति आर्त्त भक्तों की रक्षा के लिए उपस्थित होती है एवं उसका परित्राण भी करती है !
*आसरा जहान का मन में महान लिये ,*
*एक दूसरे को बल अपना दिखायेंगे !*
*देखि परिवार बंधु - बांधव अपार धन धन ,*
*मन ही मन में लोग फूले न समायेंगे !!*
*अमित अपार अभिमान मन में पाले हुए ,*
*देखने दिखाने को भगवान को रिझायेंगे !*
*भगवत्कृपा की आस बोलो कैसे पूरी होगी ,*
*कैसे कृपा करने को कृपासिन्धु आयेंगे !!*
(स्वरचित)
मनुष्य कृषि कार्य करता है उसमें उसका पुरुषार्थ लगता है परंतु अपने पुरुषार्थ मात्र से वह वह अपने खेत से अन्न का उत्पादन नहीं कर सकता ! अन्न का उत्पादन करने के लिए *भगवत्कृपा* की भी आवश्यकता होती है जो कि किसान को आकाशवृष्टि के रूप में प्राप्त होती रहती हैं ! कृषि की सफलता के लिए जैसे किसान का पुरुषार्थ एवं *भगवत्कृपा* के रूप में समय-समय पर आकाश से वृष्टि दोनों आवश्यक है वैसे ही ईश्वर की अनुग्रह की सिद्धि के लिए भी जीव का भक्ति , योग , तप , धर्माचरणादि पुरुषार्थ एवं भगवान की दया दोनों का होना आवश्यक है ! जीव को *भगवत्कृपा* का सुपात्र बनने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना चाहिए एवं *भगवत्कृपा* का अवतरण होने पर उसे सतत कार्यशील रखने के लिए अपना अनुकूल प्रयत्न तप आजीवन करते रहना चाहिए ! पूर्ण श्रद्धा - विश्वास , शरणागति , दीनता , सत्यता , समर्पण , प्रेम एवं गुरुनिष्ठा होने पर जीवन में पग-पग पर *भगवत्कृपा* के चमत्कार दिखाई देते हैं ! करुणामय भगवान की करुणा का अनुभव कर मनुष्यमात्र सुखी हो जा ! यही मंगलमय कामना है !