गोस्वामी तुलसीदास जी की पवित्र दैवी अनुभूति में श्री राम रम गए ! वे उनके हृदय और तत्व प्रेरित अप्रतिहत वाणी के अधिष्ठान हैं ! उनके सात्विक भावों की साकार सजीव मूर्ति हैं श्रीराम ! जिनके अंग में अनुग्रह का भाव प्रतिष्ठित है ! तुलसीदास जी कह पड़ते हैं :--
*है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु मूरति कृपामई है*
(विनय पत्रिका)
वह सतत प्रवाहशील कारुण्य-जल एक स्थान पर कैसे ठहर सकता है ! वह चाहे या ना चाहे वह तो प्रभावित होगा ही प्रवाह उसका धर्म जो है ! अगुन , अरूप , अलख परमात्मा की *विप्र धेनु सुर संत हित* दाशरथि (श्री राम) बनने के पश्चात उनका मूलभूत गुण अनुग्रह कहां प्रतिष्ठित है ! देखिए:---
*अनुग्रहाख्यहृत्स्येन्दुसूचकस्मितचन्दिक:*
(अध्यात्म रामायण)
इसी को सरल करते हुए गोस्वामी जी मानस में लिखते हैं :--
*हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा !*
*सूचत किरण मनोहर हासा !!*
(मानस)
लीला जगत में श्रीराम - स्वभाव के मूल में यही *कृपा शक्ति* कार्यशील रही है ! यथा:---
*राम भलाई अापनी भल कियों न काको !*
*जुग-जुग जानकिनाथ को जग जागत साको !!*
(विनय पत्रिका)
इसी शक्ति की अजस्रता ने राम को प्रभु क अनेक नामों में श्रेष्ठ सिद्ध कराया ! चंद्रमा उल्लास शांति और शीतलता प्रदायक है ऐसा चंद्रमा अपने प्रतीकार्थ में भगवान श्री राम के हृदय में बाल्यावस्था से ही उदित हो गया था जिसकी चंद्रिका उनकी मधुर स्मित एवं हास्य में सुव्यक्त होती रहती थी ! श्रीराम की क्षण-क्षण नूतन अनुग्रह पूर्ण राका के समीप आने वाली सृष्टि की प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन कृतकृत्य हुए बिना नहीं रह पाई ! *यह उनकी कृपा का ही प्रभाव है* उनकी स्वभावजन्य कृपालुता ने अद्वितीय भूमिका सफल निर्वाह किया है ! श्री राम ने जहां अपने सुहृदों पर कृपा की , उनकी प्रशंसा की वहीं लोकप्रपीडक दुष्ट जीवो को भी अपनाया ! मित्रों और शुभचिंतकों के प्रति तो प्रत्येक व्यक्ति सद्भाव रख सकता है परंतु शत्रु के प्रति सहृदयता का बर्ताव करने वाले तो भगवान श्रीराम ही हैं ! जिनके स्वभाव के प्रति अवधेश दशरथ जी की धारणा थी कि :---
*जासु सुभाउ अरिहिं अनुकूला*
( मानस )
सिर्फ दशरथ जी ही नहीं बल्कि यह तो भरत जी को भी विश्वास था कि:--
*अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा*
( मानस)
मंथरा की कुमंत्रणा के परिणाम स्वरूप कैकेयी के हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी जिसकी आंच से महाराज दशरथ का कोमल हृदय रात भर जलता रहा ! प्रातः काल सबकुछ जानने के बाद भी कृपा वत्सल भगवान आकर माता के कैकेयी से पूछते हैं :---
*मोहि कहु मातु तात दुख कारन !*
*करिअ जतन जेहि होइ निवारन !!*
( मानस )
*अर्थात:-* हे माता मुझे पिता के दुख का कारण बताओ जिससे वह यत्न किया जाय जिसके द्वारा उसका निवारण हो ! और कैकेयी ने सारा कारण बता डाला ! जो साक्षात कठोरता को भी व्याकुल कर देने वाले कहे गए हैं , परंतु भगवान के हृदय की तो बात ही निराली है ! *माता पर कृपा की* और उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर लिया ! यह भगवान की *अहैतुकी कृपा* ही है !