भारतीय वांग्मय के अनुसार सृष्टि से लेकर संहार पर्यंत समस्त क्रियाकलाप *भगवत्कृपाप्रसूत* ही है ! समस्त कल्याण गुणों की आश्रयभूता एवं हेय गुणों से सर्वथा रहित *भगवत्कृपा* समस्त प्राणियों पर सदैव बरसती रहती है :---
*लोकावत्तु लीलाकैवल्यम्*
( ब्रह्म सूत्र )
आदि वचनों द्वारा मनीषियों ने सृष्टि के प्रयोजन के रूप में भगवान की लीला का प्रतिपादन अवश्य किया है किंतु गंभीरता से विचार करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लीला से कहीं अधिक उनकी कृपा ही सृष्टि का कारण है ! यथा :---
*अचिदविशिष्टान् प्रलये जन्तूनवलोक्य जातनिर्वेदा !*
*करणकलेवरयोगं वितरसि वृषशैलनाथकरुणे त्वम् !!*
( दया शतकम )
उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से यह कहा गया है कि सृष्टि में *भगवत्कृपा* ही हेतु है ! प्रलय काल में जड़वत् पड़े हुए प्राणियों को देखकर *भगवत्कृपा* उद्भूत होती है ! तब भगवान सृष्टि के लिए प्रवृत्त होते हैं तथा प्राणियों को पूर्व कर्मानुसार शरीर , इंद्रिय आदि प्रदान करते हैं कि ये जीव पुन: संसार में जायं और सत्कर्मानुष्ठान द्वारा भव बंधन से मुक्त होकर अपने अगाध आनंद स्वरूप का अनुभव करें !
*कर्म प्रधान सदा जग में ,*
*बिनु कर्म के कोई नहीं कुछ पाता !*
*राजा बने महाराजा बने ,*
*या कि बनिके भिखारी सदा दुख पाता !!*
*निज कर्म के फल अनुसार यहाँ ,*
*सुख दुख पाकर दिन रैन बिताता !*
*"अर्जुन" करमन की है गति परबल ,*
*नहिं कर्म की गति से बचे हैं बिधाता !!*
(स्वरचित)
शास्त्र आदि समग्र धर्म ग्रंथों ने कर्म फल की प्रधानता का उद्घोष किया है और प्रपंच की बहुरूपता का कारण भी पूर्वकर्म ही सिद्ध किया है , किंतु इतना सब होने के उपरांत भी *भगवत्कृपा* की स्वतंत्रता अक्षुण्ण ही बनी रहती है , उन पर वैषम्य और नैर्घृण्य दोष का आरोपण ना हो सके , केवल इसीलिए वे (परमात्मा) सृष्टि के आदि में के कर्म फल का आश्रय लेते हैं ! सुकृत और दुष्कृत अनुष्ठान प्राणियों द्वारा निरंतर होता रहता है किंतु किन कर्मों का फल अभी भोगना है किन का फल बाद में भोगना है इसकी व्यवस्था पूर्णतया भगवान के ही अधीन है ! *जैसे:-* किसी प्राणी के द्वारा अनेकों सत्कर्म हुए हैं साथ ही कुछ दुष्कर्म भी हो गए हैं ! जन्म ग्रहण करने के अवसर पर भगवान चाहे तो पाप कर्मानुसार उसको कूकर - सूकर योनियों में डालकर पवित्र बना दें *(क्योंकि इन नीच योनियों में नए पाप तो बनते नहीं और पुराने पाप नष्ट हो जाते हैं तदन्तर भगवत्कृपा से पुनः मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर ऐसी योग्यता प्राप्त हो जाती है जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है )* या कर्मानुसार उन्हें किन्ही योगियों के कुल में जन्म दे दे जिससे तक अनुष्ठान आदि के द्वारा उसके पूर्व के पापा के कर्मों का फल भस्मसात हो जाय और वह आत्मबोध प्राप्त करके मुक्त हो जाय ! *कहने का तात्पर्य यह है कि* कर्मफल भोग के अवसर पर भी *भगवत्कृपा* की स्वतंत्रता बनी ही रहती है ! *भगवत्कृपा* संचित और क्रियमाण कर्मों के दोष तो समाप्त कर ही देती है *भगवत्कृपा* प्रारब्ध कर्मों में भी संशोधन करने में सक्षम है !