थोड़ा सा कष्ट आ जाने पर लोग भगवान के विरुद्ध आचरण करने लगते हैं और कहने लगते हैं कि भगवान के यहां न्याय नहीं है ! जबकि कष्ट मिलना भी *भगवत्कृपा* ही हैं ! जब मनुष्य को कष्ट मिले तो यह विचार करना चाहिए कि अब शायद सुख मिलने वाला है ! माता-पिता एवं गुरू अपने बालक को सुधारने के लिए उसको दंड देते हैं तोदंड देने के बाद प्रेम से उस को समझाते भी हैं | यह बड़ों का स्वभाव होता है कि वे जिसका सुधार करते हैं उस पर पहले शासन करते हैं फिर उस पर स्नेह करते हैं | :--
*सासति करि पुनि करहिं पसाऊ !*
*नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ !!*
( मानस/८/९२)
शासन करने और स्नेह करने दोनों में *भगवत्कृपा* समान होती है ! गीता का उपदेश देते हुए पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धमकाते हैं और कहते हैं:-
*श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि*
(गीता/१८/५८
*अर्थात:-* अगर तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा धमकाने के बाद भगवान फिर प्रेम से कहते हैं:-
*सर्वगुह्यतमं भूय: श्रुणु मे परमं वच: !*
*इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् !!*
(गीता/१८/६४)
*अर्थात:-* भगवान कहते हैं :- सबसे अत्यंत गोपनीय बचन तू फिर मुझसे सुन ! तू मेरा अत्यंत प्रिय है इसलिए मैं तेरे हित की बात करूंगा ! भगवान का , गुरुजनों का , माता - पिता का ऐसा भाव होता है तभी हमारा पालन होता है नहीं तो हमारी क्या दशा होगी ! संसार के लोग अगर हमारे अवगुणों को जान जायं तो हम से कितनी घृणा करें पर भगवान तो कण-कण की बात जानते हैं फिर भी सहज स्वाभाविक *भगवत्कृपा* करते ही रहते हैं ! क्योंकि भगवान उदार हैं :---
*ऐसो को उदार जग माही !*
*बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं !!*
( विनय पत्रिका/१६२)
लोगों में हमारे अवगुण प्रकट नहीं होते , तभी हमारा काम चलता है ! हमारे मन में जो बुरी बातें आती हैं उनको अगर लोग जान ले तो एक दिन में कितनी मार पड़् यह कहा नहीं जा सकता , परंतु लोगों को उनको पता नहीं चलता ! भगवान तो सब जानते हैं पर जानते हुये भी कभी हमारा त्याग नहीं करते बल्कि अपनी आंखें भींच लेते हैं कि बालक है कोई बात नहीं ! इस कारण हमारा काम चलता है नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाय ! अगर भगवान हमारे लक्षणों की तरफ देखें तो हमारा उद्धार होना तो दूर रहा निर्वाह होना भी मुश्किल हो जाय , परंतु भगवान देखते ही नहीं ! ऐसे कृपासिंधु भगवान की कृपा पर विश्वास रखें और उसी का भरोसा रखें ! *भगवत्कृपा* सदैव दूसरों का हित करने के लिए ही होती है !जैसे गाय का दूध गाय के लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए होता है ऐसे ही *भगवत्कृपा* भगवान के लिए नहीं बल्कि हम सभी के लिए ही है ! यदि भगवान से दया की इच्छा है तो अपने से छोटों पर दया करना पड़ेगा तभी भगवान दया करेंगे ! सीधी सी बात है दया चाहते हो तो दूसरों पर दया करते रहो , परंतु लोग दया तो चाहते हैं परंतु दूसरों पर दया करना नहीं चाहते ! *भगवत्कृपा* की विलक्षणता देखिए कि जो गीता अर्जुन को भी दोबारा सुनने को नहीं मिली वह हमें प्रतिदिन पढ़ने - सुनने को मिल रही है ! यह कितनी विलक्षण *भगवत्कृपा* है ! इतना समझने के बाद भी यदि हमको *भगवत्कृपा* के दर्शन ना हो तो यह हमारे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं | आज तक जितने भी महात्मा हुए हैं *भगवत्कृपा* से ही जीवन्मुक्त , तत्वज्ञ तथा होते हुए भगवत्प्रेमी हुये हैं ! *भगवत्कृपा* का रहस्य बड़ा विलक्षण है ! जब तक संतों की शरण में जाकर सत्संग नहीं किया जाएगा तब तक *भगवत्कृपा* के विषय में जान पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है !