अध्यात्म साधना का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें विषम तथा विपरीत परिस्थितियां ही भोगमय जीवन से वितृष्ण में बनाकर विषयी जीवो को जीवन्मुक्त महापुरुष बनाने में सहायक हुईं ! उदात्तीकरण की मनोवैज्ञानिक पद्धति द्वारा लौकिक भोगों में लिप्त मन को विरक्तिपूर्वक भगवत्प्रेम के आस्वादन का अभ्यासी बनाने का सिद्धांत वैष्णव भक्ति आंदोलन की सबसे बड़ी देन है ! इसकी पुष्टि पग पग पर होती देखी जा सकती है ! यथा :--
*विषय वारि मन मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक !*
*ताते सहौं विपतु अति दारुन जनमत जोनि अनेक !!*
*कृपा डोरि बनसी पद अंकुश परम प्रेम मृदु चारो !*
*एहि विधि वेधि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो !!*
(विनय पत्रिका)
अनादिकाल से भोगाभ्यासी मन को विषयों से पृथक करना अत्यंत दुष्कर व्यापार है ! वह स्त्री - पुत्र , बंधु - बांधव , जमीन - जायदाद , शत्रु - मित्र आदि अगणित संबंध सूत्रों से बंधा है , चिपका हुआ है ! सामान्यतया उसके लिए इनसे अलग हो पाना अकल्पनीय है ! जब तक इन संबंधों से उसे रस प्राप्त होता रहेगा वह इनमें लिपटा रहेगा ! छूटने का एकमात्र उपाय है तीव्र झटका अथवा गहरा आघात ! यह असह्य अपमान , घोर दारिद्र्य , प्रिय व्यक्ति का आकस्मिक निधन आदि किसी भी माध्यम से प्राप्त हो सकता है ! यदि ऐसा होता है तो इसे अपने ऊपर *भगवत्कृपा* मानना चाहिए , क्योंकि जब *भगवत्कृपा* होती है सभी विषयों से मन हटता है और जब आकस्मिक घटना घटती है तभी मनुष्य को ईश्वर की याद आती है , अन्यथा वह भगवान एवं *भगवत्कृपा* को भुलाकर सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त रहता है ! जब ऐसा हो तब इसे *विशेष भगवत्कृपा* मानना चाहिए ! संत बनादास जी ने लिखा है :--
*कृपापात्र को रुज मिलै निर्धनता अपमान !*
*कुल कुटुंब को नास भै ,अति करुना भगवान !!*
*अति करुना भगवान वंश को छेदन कीना !*
*ममता रही ना कहूं शिथिल मन तन सुख खीना !!*
*"बनादास पीछे दिये दृढ़ता आतम ज्ञान !*
*कृपापात्र को रुज मिलै निर्धनता अपमान !!*
इसके विपरीत जिस संपन्नता और सुख को लोग *ईश्वर की कृपा* का फल मानते हैं वह उनके मत से जगन्नियंता की अप्रसन्नता का प्रतीक और अधोगति का द्वार है ! यथा:--
*हरि विमुखन को मिलत है , तन सुख अरु धन धाम !*
*मान प्रतिष्ठा अमित बल , माया केर गुलाम !!*
*माया केर गुलाम राम को भूलि न जाने !*
*खान-पान सनमान माहिं , निसिदिन लपटाने !!*
*"बनादास" दिन मृषा के अहनिसि भोगत काम !*
*हरि विमुखन को मिलत है , तन सुख अरु धन धाम !!*
हममें से प्रत्येक व्यक्ति जगल्लीला की ही संतान अनबूझ पहेली हुआ देखकर आश्चर्यचकित होता है ! कोई भगवान के सिर अन्याय का दोष मढ़कर संतोष करता है तो कोई प्रारब्ध का भोग मानकर ! किंतु कितने ऐसे हैं जो अनाचारियों की भौतिक समृद्धि को इंद्रजाल समझकर उसके पीछे झाँकती हुई महाप्रकृति की कुटिल भौंहों का दर्शन कर पाते है ! *करुणा , कृपा अथवा दया भगवान का नित्यगुण है !* घोर आपत्तियों को दैवी प्रकोप अथवा रोष का परिणाम मानने वाले मोहग्रस्त जीव प्रत्यक्ष प्रतिकूलता में निहित कल्याण भावना का अनुभव नहीं कर सकते ! काली घटाओं में रहने वाली बिजली की अंधकार भेदन शक्ति की प्रतीति सबको नहीं हो पाती ! यह *भगवत्कृपा* उसी को प्राप्त हो पाती है जो भगवान के प्रत्येक विधान का स्वागत करते हैं ! वही *भगवत्कृपा* की विचित्रता को समझ पाते हैं क्योंकि *भगवत्कृपा* सहज नहीं प्राप्त होती !