*भगवत्कृपा* से मनुष्य को *संत कृपा* प्राप्त होती है और *संत कृपा* प्राप्त होने से मनुष्य सत्संग का भागी बनता है ! सत्संग का भागी बनते ही मनुष्य के हृदय में भक्ति का प्राकट्य होता है और भक्ति का प्राकट्य जब हृदय में हो जाता है तब *विशेष भगवतिकृपा* प्राप्त होती है ! भगवान कहते हैं:---
*तेषामेवानुकम्पार्थ महमज्ञानजं तमः !*
*नाशयाम्यात्म भावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता !!*
*अर्थात्:-* हे अर्जुन! जिसके हृदय में भक्ति का प्राकट्य हो जाता है उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ !
*भगवत्कृपा से नष्ट जब होता है अज्ञान !*
*तब होती है जीव को अपने की पहचान !!*
(स्वरचित)
इस प्रकार *भगवत्कृपा* से जब अज्ञान जनित अंधकार दूर हो जाता है तो भक्त अपने सब कर्मों का संपादन बैराग्य पूर्वक फल की आकांक्षा से रहित होकर करता हुआ अपने आप को भगवान के साथ घनिष्ठ रूप में संयुक्त अनुभव करने लगता है ! परिणाम स्वरूप उसे संसार के भौतिक युद्ध से छुटकारा मिल जाता है ! पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आता है , और वह मुक्त हो जाता है ! ऐसी अवस्था को प्राप्त भक्त चाहे समाधि में लीन रहे अथवा शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म में उसके लिए दोनों एक से ही बातें हैं ! *भगवत्कृपा* की महिमा तब और बढ़ जाती है जब हम देखते हैं कि भारत के सभी मूर्धन्य ऋषियों और आचार्यों ने अपनी प्रार्थना तथा रचनाओं में स्थान देकर इसके महत्व का मुक्तकंठ से प्रतिपादन किया है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान के साथ घनिष्ठता बनानी पड़ती है और भगवान से कहना पड़ता है कि हे भगवन:--
*स न: पितेव सूनवे$ग्ने सूपायनो भव ! सचस्वा न: स्वस्तये !!*
(यजुर्वेद)
*अर्थात्:-* हे प्रभु आप हमारे साथ रहें और हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करें ! इतना ही नहीं भगवान से इतनी घनिष्ठता करनी पड़ेगी कि उन्हें अपना सब कुछ मानना पड़ेगा और उनसे कहना पड़ेगा कि हे भगवन :---
*"पिता नो$सि पिता नो बोधि"*
(यजुर्वेद)
*अर्थात्:-* हे प्रभु आप हमारे पिता हैं अतः आप पिता की भांति हमें शिक्षा दें ! *कठोपनिषद* में वर्णन मिलता है कि यह परमपिता जिसका वर्णन करते हैं उसके द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं तत्पश्चात वे परम प्रभु उस जीव के प्रति अपने यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त कर देते हैं ! अन्य उपनिषदों एवं गीता आदि धर्म ग्रंथों में स्पष्ट देखने को मिलता है कि *भगवत्कृपा* उसको ही प्राप्त हुई है जिसने स्वयं को परमात्मा के हाथों में सौंप दिया है !
*तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा*
इस भाव से जो भी भगवान की शरण में जाता है उस पर *विशेष भगवत्कृपा* होती है और उसका जन्म जन्मांतर सुधर जाता है !