हम इस सुंदर संसार में रहते हैं , अपने मनमाने क्रियाकलाप करते हैं ! संसार को इतना सुंदर किसने बनाया ? यह विचार करने वाली बात है कि यह सारा संसार भगवान की कृपा अर्थात *भगवत्कृपा* से ही बना है ! यदि *भगवत्कृपा* न होती तो न यह संसार होता और न ही हम होते ! इसीलिए मन में विचार आता है:--
*भगवत्कृपा सकल संसारा !*
*भगवत्कृपा सृष्टि विस्तारा !!*
*भगवत्कृपा सकल जग माहीं !*
*भगवत्कृपा बिना कछु नाहीं !!*
कहने का तात्पर्य है कि *भगवत्कृपा* के बिना इस संसार में कुछ भी होना असंभव है ! यह *भगवत्कृपा* मनुष्य को अनेकों रूप में प्राप्त होती है ! *मातृकृपा , पितृकृपा , गुरुकृपा , हरिकृपा , कृष्णकृपा , रामकृपा , हनुमत्कृपा यह सब भगवत्कृपा की ही शाखाएं हैं !* जब तक मनुष्य के ऊपर *भगवत्कृपा* नहीं होगी तब तक किसी अन्य की कृपा प्राप्त ही नहीं हो सकती ! आज के कुछ दिन पहले जब हमने इस पर विचार किया तो मेरे अंतर्मन से एक आवाज इतनी कि इस संसार में *भगवत्कृपा* के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ! इसीलिए मैंने एक परिवार बनाया और उस परिवार का नाम रख दिया *‼️ भगवत्कृपा हि केवलम ‼️* क्योंकि इस संसार में केवल *भगवत्कृपा* से ही सारे कार्य हो रहे हैं इसलिए हमने अपने परिवार का नाम *‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️* रखा ! जीव इस संसार में जब पहुंचने की तैयारी करता है उसके पहले ही *भगवत्कृपा* पहुंच जाती है ! जीव का जन्म तो बाद में होता है परंतु *भगवत्कृपा* के रूप में मां के स्तनों में दूध पहले ही उतर आता है ! जीवन में *भगवत्कृपा* का क्या महत्व है यह विचार करने की बात है ! इस संसार में *भगवत्कृपा* के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं , परंतु हम इस *भगवत्कृपा* को अनदेखा कर देते हैं ! सनातन धर्म के आदिग्रंथ *ऋग्वेद* में *भगवत्कृपा* प्राप्त करने की अभिलाषा की गई है ! वेद भगवान कहते हैं:-
*स्वस्ति पन्थामनु चरेम्*
(ऋग्वेद/५/५१/१५)
*अर्थात्:-* हे प्रभो ! हम पर यह कृपा करो कि हम कल्याण मार्ग के पथिक बनें !
*भगवतकृपा* प्राप्त करने की लालसा हमें प्रारंभिक शिक्षा से ही दिलाई जाती थी ! जब हम विद्यालय में जाते थे तो वहां पर कोई भी विषय पढ़ने के पहले गुरुजनों के द्वारा सभी विद्यार्थियों को एकत्र करके *भगवत्कृपा* प्राप्त करने हेतु भगवान की प्रार्थना कराई जाती थी जिसके स्वर होते थे:--
*वह शक्ति हमें दो दयानिधे ,*
*कर्तव्य मार्ग पर डट जावें !*
*पर सेवा पर उपकार में हम ,*
*जग जीवन सफल बना जावें !!*
*हम दीन दुखी निर्बलों विकलों ,*
*के सेवक बन संताप हरे !*
*जो हैं अटके भूले भटके ,*
*उनको तारें खुद तर जावें !*
*छल दम्भ द्वेष पाखण्ड झूठ ,*
*अन्याय से निशि दिन दूर रहे !*
*जीवन हो शुद्ध सरल अपना ,*
*सुचि प्रेम सुधारस बरसावें !!*
*निज आन मान मर्यादा का ,*
*प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे !*
*जिस देश जाति में जन्म लिया ,*
*बलिदान उसी पर हो जावें !!*
बचपन में की गयी यह प्रार्थना सबको ही लगभग कंठस्थ होगी , परंतु प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते समय इस प्रार्थना का अर्थ नहीं समझ में आया ! बहुत चिंतन करने के बाद यह बात समझ में आई कि यह *भगवत्कृपा* की याचना थी जो हमारे गुरुजन बचपन से ही हमारे अंदर आरोपित करने का प्रयास करते रहे हैं क्योंकि इस संसार में *भगवत्कृपा* के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं !
अतः प्रेम से बोलो
*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम ‼️*
*क्रमश::--+*