*भगवत्कृपा* भगवान के अनुग्रह का ही स्वरूप है ! बिना *भगवत्कृपा* के , बिना उनके अनुग्रह के इस संसार में कुछ भी नहीं होता ! जीव का कल्याण तो कदापि नहीं हो सकता ! जब ईश्वर की अनुग्रह होती है तो :--
*ईश्वरानुग्रहादेव पुंसांद्वैतवासना !*
*महाभयपरित्राणा विप्राणामुपजायते !!*
(अवधूत गीता)
ईश्वर के अनुग्रह से ही विवेक वैराग्यादि साधन-संपत्ति संयुक्त मुमुक्षु पुरुषों में अद्वैतज्ञान की वासना उत्पन्न होती है , जो संसार रूप महान भय से मुक्त कर देती है ! भगवान स्वयं कहते हैं :--
*सर्वाकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यापाश्रय: !*
*मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् !!*
*मतचित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यति !*
*तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन् भारत !!*
*तत्प्रसादात्परां शांति स्थान प्राप्यसि शाश्वतम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी *मेरी कृपा से* सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है ! मुझ में चित्त वाला होकर तुम *मेरी कृपा से* समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाओगे ! हे भारत ! तुम सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जाओ उस परमात्मा की कृपा से तुम परम शांति तथा सनातन परमधाम को प्राप्त हो जाओगे ! ईश्वर अनुग्रह ही ईश्वर दर्शन एवं आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र साधन है !
*यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:*
( कठोपनिषद )
भगवान जिसे वरण कर लेते हैं केवल उसी को प्राप्त होते हैं , मनुष्य धर्म , सुकर्म , तप , ज्ञानार्जन , आत्म साक्षात्कार आदि के लिए कितना भी पुरुषार्थ क्यों न करें फिर भी यह सब प्रयत्न भगवद्दर्शन , आत्मसाक्षात्कार अथवा ब्रह्मानंद की तुलना में भी अत्यंत सीमित और क्षुद्र ही सिद्ध होंगे ! अर्थात भगवत्प्राप्ति अथवा तत्व साक्षात्कार प्रयत्नसाध्य - क्रिया साधना होकर *भगवत्कृपा* का ही फल है !
*ध्यान करे बहु ज्ञान सिखें ,*
*तपयोग करे मन में सुख पावै !*
*कर्म के जाल जटिल बुनकर ,*
*निशिदिन बहु फल कर आश लगावै !!*
*योग कसौटी पै तन कसिके ,*
*जीवन को मथइंं पुनि योगी कहावैं !*
*"अर्जुन" यहि जग में मानुष ,*
*भगवन्तकृपा बिनु कछु नहिं पावै !!*
(स्वरचित)
मनुष्य अपनी शारीरिक क्रियाओं , प्राण जगत की वासनाओं , हृदय के भाववेगों एवं मन तथा बुद्धि के व्यापारों द्वारा निरंतर अनेक कर्मों की जटिल जाल श्रृंखला बुन रहा है , जबकि केवल न्याय के बल पर , केवल अपने गुणों और कर्मों के आधार पर किसी को भी मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है ! यह *भगवत्कृपा* शक्ति ही है जो विश्व की न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हुए अनेक भूलों को निरंतर मिटा रही है ! कष्टों एवं दुखों को सहन करने की शक्ति देती है ! सफलता की कठोर परीक्षाओं में से गुजरने का बल देती है ! निराशा में आशा की किरण बनकर चमकती है , तथा विकास के मार्ग पर बढ़ते हुए प्रत्येक प्राणी को सहायता देने के लिए सदैव तत्पर रहती है ! *भगवत्कृपा* निरंतर प्राणी मात्र पर बरसती रहती है ! सृष्टि का कोई ऐसा कण नहीं है जिस पर *भगवत्कृपा* ना हो !
*करुणा जगत में सदैव भगवान की है ,*
*अनेकों स्वरूपों में वह जग में दिखाती है !*
*वही सत्य ज्ञान रूप बुद्धि को प्रदीप्त करे ,*
*शक्ति के स्वरूप कार्य सिद्ध करवाती है !*
*शांति के स्वरूप में संघर्षों का समन करती ,*
*पावन बनकर सारे दोष को मिटाती है !*
*"अर्जुन" कृपा भगवान की जननी की तरह ,*
*सभी जड़ चेतन को आंचल में छुपाती है !!*
(स्वरचित)
भगवान की करुणा जगत में सदैव सहस्त्र सहस्त्र धाराओं में अमोघ वेग के साथ प्रवाहित हो रही है ! वही सत्य ज्ञान के रूप में बुद्धि को प्रदीप्त एवं प्रेरित करती है , शक्ति के रूप में कार्यों को सिद्ध करती है , शांति के रूप में सभी संघर्षों का शमन करती है एवं पावनकारिणी के रूप में सभी विकारों एवं दोषों को धोकर पवित्र कर देती है ! अनुग्रह दोषों और अपूर्णताओं का विचार नहीं करता ! ईश्वर का वात्सल्य तो प्रेममयी मां द्वारा दुर्बल और भटके हुए बच्चे को प्यार आलंबन एवं सहायता देने की भांति ही है ! जैसे गौ नवजात बछड़े के शरीर पर लिपटे मलादि को चाट कर साफ़ कर देती है वैसे ही परम करुणामयी , वात्सल्य मूर्ति *कृपा जगदंबा* भी हमारे दोषोंं और भूलों को पोंछकर हमें निर्मल और पवित्र बना देती है !