यह सारा संसार जहां तक दिखाई पड़ता है संपूर्ण सृष्टि *भगवत्कृपा* का ही फल है ! जगत में हम जो कुछ भी देखते , सुनते , समझते हैं उसके नियंता स्वयं भगवान हैं ! भगवान से ही यह सारा जगत ओतप्रोत है :--
*ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंचित्जगत्यां जगत् !*
*तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद् धनम् !!*
(ईशावास्योपनिषद १/१)
*अर्थात्:-* अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ भी जड़ - चेतन रुप जगत है यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है ! उस ईश्वर को साथ रखते हुए (स्मरण करते हुए) सांसारिक भोग पदार्थों का त्याग पूर्वक उपभोग करो , उनमें अासक्त ना होओ , क्योंकि भोग पदार्थ किसका है ? अर्थात किसी का भी नहीं है ! *इस मंत्र के दो भाव हैं* एक तो ईश्वर की व्यापकता के विषय में और दूसरा हम मनुष्यों के लिए सांसारिक वस्तुओं के उपयोग के संबंध में ! परमात्मा सर्वाधार और सर्व व्यापक है | भगवान की व्यापकता से यह संकेत किया गया है कि हम सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करते समय यह सदा स्मरण रखें कि उन वस्तुओं में भगवान विद्यमान हैं और उन वस्तुओं का भोग ना कर हमें बिना आसक्ति के उनका सदुपयोग करना चाहिए ! यदि केवल इतना ही हमारा ध्यान रहे तो संसार में सारा कामकाज करते हुए भी भगवान को प्राप्त करने में हमें कोई विलंब नहीं होगा ! गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहते हैं :;-
*जड़ चेतन गुन दोष मय विश्व कीन्ह करतार !*
*संत हंस गुन गहहिं पय , परिहरि वारि विकार !*
( मानस )
*अर्थात :-* विधाता ने इस जड़ चेतन विश्व को गुण दोषमय रचा है , पर विवेकी पुरुष हंस के समान दोष रूप जल को छोड़कर गुण रूप दूध को ग्रहण करते हैं ! *अभिप्राय यही है कि* वे भोगों में आसक्त होकर संसार में फंसते नहीं है ! सांसारिक वस्तुओं के उपभोग के समय हमें क्या-क्या करना चाहिए जिससे भगवान का स्मरण भी होता रहे और भोगों में आसक्ति भी ना हो ! अर्थात त्याग का भाव भी बना रहे ! इसके लिए शास्त्रों में तरह-तरह के विधान बताए गए हैं ! *उदाहरण स्वरूप:-* प्रातः काल जब हम सो कर उठने के बाद पृथ्वी पर पैर रखते हैं तो हमारे लिए पृथ्वी को यह कहते हुए प्रणाम करने का संकेत है कि :-
*विष्णुपत्नीं नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे*
(नारदपुराण / १/६६/२)
स्नान करते एवं जल ग्रहण करते समय भगवान वरुण की स्तुति करने को कहा गया है , तथा गंगा , गोदावरी , नर्मदा , आदि मुख्य- मुख्य नदियों के नाम स्मरण का विधान है ! ठीक इसी प्रकार स्नान के पश्चात वस्त्र धारण करने का भी विशिष्ट स्तोत्र है *सारांश यह है कि दैनिक जीवन में होने वाले प्रत्येक कर्मों में कुछ न कुछ ऐसे विधान हैं कि यदि विशेष ना हो सके तो कम से कम भगवान का इसी निमित्त से इतना स्मरण तो नित्य हो ही जाय !* हमारे धर्मशास्त्रों में आसन्न मृत्यु के लिए जो भी शास्त्रीय विधान है अन्यत्र प्राप्त होने असंभव है ! *यह भगवत्कृपा ही है !* इस प्रकार पग-पग पर अपने द्वारा होने वाले समस्त कर्मों को भगवान को समर्पित कर उन्हें स्मरण रखते हुए ही जो लोग करते हैं उनका जीवन उत्तरोत्तर भगवन्मय में हो जाता है और इसी जीवन में *भगवत्कृपा* प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं ! *तात्पर्य है कि* सांसारिक भोगों में त्यागबुद्धि होने से *भगवद्भक्ति* का उदय होता है *भगवद्भक्ति* संपन्न व्यक्ति की आसक्ति का स्वयं ह्रास हो जाता है ! जैसा कि कहा गया है :--
*लाभ कि किछु हरि भगति समाना !*
*यह गावहिं श्रुति संत पुराना !!*
*हानि कि जग एहि सम किछु भाई !*
*भजिअ न रामहिं नरतनु पाई !!*
( मानस )
*अर्थात :-* भगवान की भक्ति के समान कोई लाभ नहीं तथा दुर्लभ मानव देह पाकर भोगों में फंसे रहना , भगवद्भजन न करना इससे बढ़कर कोई हानि नहीं है ! यह समस्त शास्त्रों का निचोड़ है ! कुल मिलाकर सारांश यह है कि वह आसक्ति का त्याग और सर्वव्यापी भगवान का सतत स्मरण ही *भगवतकृपा* की अनुभूति कराने में सहायक होते हैं , अन्यथा पूरा जीवन व्यतीत कर देने पर भी *भगवत्कृपा* की अनुभूति नहीं हो पाती |