काल चक्र निरंतर घूम रहा है बारंबार के आवागमन से भ्रान्त और क्लान्त जीव समूह संसार के दीर्घ पद पर अनिवार्य रूप से बढ़े चलेे जा रहे हैं ! ग्लानि शून्य आनंद अर्थात भूमासुख (ब्रह्मानंद) की खोज में ! लौकिक सुख तो ब्रह्मानंद प्रदान नहीं कर सकते केवल संताप पर संताप देते रहते हैं ! किसी भी लौकिक उपाय द्वारा भूमासुख अर्थात परमानंद प्राप्त नहीं किया जा सकता ! वह तो जीव को *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त हो सकता है | *भगवत्कृपा* प्राप्ति के लिए जीव को सदैव शास्त्र पथ का अवलंबन ग्रहण करना होगा ! यथा:--
*अथ त्रिविधदु:खात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:*
(सांख्यदर्शन/१/१)
त्रिविध दुखों की ( *अाधिभौतिक:-* मनुष्य - पशु आदि के द्वारा उत्पन्न ! *आधिदैविक:-* ग्रह - पीड़ा आदि से उत्पन्न तथा *आध्यात्मिक:-* शरीर और मन आदि से उत्पन्न ) आत्यंतिक निवृत्ति परम पुरुषार्थ है और इसका उपाय एक ही है कि :-
*प्रकतेर्भिन्नमात्मानं विचारय सदानघ*
*अर्थात:-* प्रकृति से आत्मा को सदा पृथक देखना , *वेदांत दर्शन कहता है :-* वेदांतशास्त्र के श्रवण , मनन और निदिध्यासन द्वारा अखंड ब्रह्माकार की वृत्ति की परंपरा सर्जन करते हुए *अहम् ब्रह्मास्मि* इस ज्ञान की स्थिति को प्राप्त करने पर ब्रह्मानंद प्राप्त होता है ! *पातञ्जल दर्शन कहता है:-* चित्त की वृत्तियों का निरोध कर लेने पर भूमासुख कैवल्य की प्राप्ति होती है ! *शिवयोग , मंत्र-हठ-लय-राजयोग आदि* योग समूह में परमानंद की प्राप्ति के उपाय पृथक पृथक रूप से बतलाते हैं ! कोई भी मार्ग असत्य नहीं है ! अधिकार भेद के अनुसार विभिन्न शास्त्र विभिन्न उपायों को बतलाते हैं , *परंतु हम जिन परिस्थितियों में आधुनिक काल में जीवन यापन कर रहे हैं इनके बीच अवस्थित है उनमें सांख्य , वेदांत , पातंजल , न्याय वैशेषिक , मीमांसा - दर्शन के द्वारा प्रतिपादित पथ अथवा मंत्र- हठ - लय - राजादियोगों का अवलंबन करके भूमासुख प्राप्त करना जनसाधारण के लिए असंभव सा जान पड़ता है !* अतः भगवान ने प्रकारांतर से गीता में निष्काम कर्म का उल्लेख किया है ! संसार के करता श्री भगवान है हम उनके ही दास हैं !जो कुछ हम करते हैं वह उनकी प्रीत के लिए ही करते हैं ! हम ऐसा कोई कर्म नहीं करेंगे जिसके द्वारा भगवान अप्रसन्न हों ! इस प्रकार जो मनुष्य श्रीभगवान की प्रीति के लिए ही भगवान का स्मरण करते हुए कर्म करते हैं वे *भगवत्कृपा* और इस प्रकार भूमासुख की प्राप्ति करने में समर्थ होते हैं , अर्थात *सबका मूल भगवत्कृपा है* *श्रीभगवान की कृपा* के बिना दुखों की आत्यंतिक निवृत्ति संभव नहीं है ! अब निष्काम कर्म योग के ही एक प्रकार *माता-पिता की सेवा* से *भगवत्कृपा* की पूर्ण प्राप्ति की जा सकती है | भगवान की सेवा करना यदि कठिन है , योग करना कठिन है तो प्रत्येक मनुष्य सिर्फ एक कर्म करें और वह है अपन् माता पिता की सेवा | *माता पिता की सेवा करके भगवत्कृपा की प्राप्ति की जा सकती है |* ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे धर्मग्रंथों में हमको देखने को मिलते हैं | पुत्र का कर्तव्य है माता पिता की सेवा करना , माता पिता साक्षात परमेश्वर ही है यह समझ कर जो माता-पिता की सेवा करता है वह कोई अन्य साधन किए बिना ही कृतार्थ हो जाता है और *भगवत्कृपा* की प्राप्ति कर लेता है | जो पुत्र माता पिता की सेवा नहीं करता , उनके साथ दुर्व्यवहार करता है , उनको कटु वचन बोलता है , समर्थ होकर भी उन का भरण पोषण नहीं करता वह अभागा यदि दिन-रात धर्म का आचरण करे तो भी सब निरर्थक ही जाता है | *पितृद्रोही अभागे पुत्र के नर्कगमन से बचने का उपाय शास्त्र भी नहीं बतला पाते !* वह जब तक जीवित रहता है प्रायः यहां के अपयश , तिरस्कार आदि भोगता रहता है और मरने के बाद अनंत काल तक नर्क में वास करता है ! *मातृ पितृ भक्त संतान मनुष्य नहीं देवता है , श्री भगवान को प्राप्त करने के लिए उसे कोई अन्य साधन नहीं साधना पड़ता !* उस पर प्रत्यक्ष *भगवत्कृपा* होती है और भगवान स्वयं आकर उसको दर्शन दे देते हैं ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कोई साधन कर पावे या ना कर पावे ! *पुत्र यदि अपने माता-पिता का सम्मान - सेवा करता है तो भगवान को प्राप्त करने के सारे उपाय समझ लो कि वह कर रहा है !* और उस पर *विशेष भगवत्कृपा* की छत्रछाया बनी रहेगी |