*कृपामयी भगवद्गीता* के प्रत्येक अध्याय में *भगवत्कृपा* स्पष्ट झलकती है ! मानव जीवन के लिए जितना सुंदर संदेश *भगवद्गीता* में मिलता है वह अन्य कहीं भी दृष्टव्य नहीं है *आठवें अध्याय* में भगवान ने *कृपापूर्वक* बताया कि :- अंत काल में जो कोई मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह मेरे को ही प्राप्त होता है ! यह कहते हुए भगवान पुनः इसी को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि :- मनुष्य अंतकाल में जिस जिस भाव का स्मरण करता हुआ मरता है उसी भाव के अनुसार उसकी गति होती है ! अर्थात स्वर्ग नरक या अन्य योनि की प्राप्ति होती है ! जिस अंतकाल में भोगों का स्मरण करते हुए मरने वाला मनुष्य शूकर - कुकर या कीट - पतंग की योनि प्राप्त करता है उसी अंत समय में भगवान को स्मरण कर परम गति को प्राप्त हो सकता है , चाहे उसका विगत जीवन कैसा भी क्यों ना रहा हो ! यह न्यायकारी प्रभु का कैसा *कृपा पूर्व संविधान* है यह *विशेष भगवत्कृपा* है कि मनुष्य जीवन भर चाहे जो करें अंत समय में यदि भगवान का नाम ले ले तो वह परमधाम को प्राप्त कर लेता है ! प्रभु के इस विधान में न्याय और *कृपा*
का विलक्षण साम्य दृष्टिगोचर होता है ! उसके बाद भगवान ने पुनः स्वयं अपनी ओर से ही कहा है
*इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे !*
*ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् !!*
कौन ऐसा दयालु होगा जो बिना पूछे अपने हृदय की गूढ़ से गूढ़ बात बताएगा ! यही नहीं भगवान ने इस गूढ़तम ज्ञान के आठ विशेषण भी बता दिए :--
*राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् !*
*प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् !!*
*अर्थात्:-* यह ज्ञान *१-* राजविद्या (विद्याओं का राजा) *२-* राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) *३-* अति पवित्र , *४-* उत्तम , *५-* प्रत्यक्ष ज्ञानवाला , *६-* धर्मयुक्त , *७-* साधन करने में सरल और *८-* अव्यय (अविनाशी) है ! लोक में भी अपने उपदेश की प्रशंसा स्वयं करने में सज्जन पुरुष कुछ संकोच का अनुभव करते हैं किंतु भगवान के हृदय में *कृपा का समुद्र* उमड़ रहा है और अर्जुन दोष दृष्टि रहित *अनुसूय* हैं अतः वे अर्जुन को और उनके निमित्त से समस्त जीव मात्र के हित की दृष्टि से पग-पग पर कल्याण का मार्ग बताते हुए कहते हैं :-
*भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः !*
*यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया !!*
*अर्थात :-* हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य युक्त और प्रभाव युक्त वचनों को सुनो जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के प्रति हित की इच्छा से कहूंगा ! *नवें अध्याय* का आरंभ जहां भगवान ने *गुह्यतमम्* शब्द से किया है वहां *दसवें अध्याय* के आरंभ में *परमं बच:* कह रहे हैं और वह भी हित कामना भाव से ! इसका उद्देश्य अर्जुन को भलीभाँति अपने कर्तव्य का भान कराना एवं उनकी शंकाओं को निर्मूल करना है ! भगवान चाहते हैं कि अर्जुन का मोह नष्ट हो जाय इसीलिए इतना कहने के पश्चात भी वे असंतोष अनुभव करते हैं , उनकी तृप्ति नहीं होती ! अतः दूसरे प्रकार से उसी विषय का प्रतिपादन करते हैं ! जीव के कल्याण की ऐसी उत्कट कामना , ऐसी *अद्भुत भगवत्कृपा* अकारण करुणावरुणालय ही कर सकते हैं ! वे कहते हैं :- जिस रहस्य को न देवता जानते हैं न महर्षि वही अपने लीला से प्रकट होने का रहस्य मैं तुम्हें बताता हूं ! इस प्रकार भगवान अर्जुन पर अपनी *कृपा की बरसात* कर रहे हैं जिस में भीग कर अर्जुन स्वयं को कृतकृत्य मान रहा है !
*कृष्ण वचन सुनि हो रहा अर्जुन को आह्लाद !*
*भगवत्कृपा से मिल रहा भगवत्कृपा प्रसाद !!*
*सैनिक स्तम्भित सभी मोहित दिशा दिगन्त !*
*भगवत्कृपा लुटा रहे युद्धक्षेत्र भगवन्त !!*
(स्वरचित)
जब भगवान अपने भक्तों पर भी रीझते तो उसे अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं और वह *भगवत्कृपा* के रूप में भक्त को प्राप्त हो जाती है ! आज कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन पर अपना सारा ज्ञान न्योछावर कर रहे हैं यह अद्भुत *भगवतकृपा* देखकर दिग दिगंत मोहित हो गए !