वैसे तो समस्त प्राणी रात दिन अपने अपने कार्यों में लगे हैं , परंतु मनुष्य सबसे अधिक व्यस्त प्राणी माना जा सकता है , क्योंकि अन्य प्राणियों की अपेक्षा उसकी बुद्धि अधिक विकसित है ! समस्त जड़ चेतनवर्ग की सृष्टि यद्यपि एक ही परमतत्व भगवान से हुई है तथापि मनुष्य में गुण , कर्म की प्रधानता के कारण बुद्धि , ज्ञान एवं क्रिया आदि की न्यूनाधिकता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है ! *प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य मात्र एक ही परम पिता की संतान है तो उसमें न्यूनाधिकता क्यों पाई जाती है ?*
*क्या परमात्मा भेदभाव का आश्रय लेकर मनुष्य को न्यूनाधिक मात्रा में यह सब प्राकृतिक पदार्थ प्रदान करते हैं ?*
*यदि ऐसा है तो भी समदर्शी एवं न्याय प्रिय कहलाने के अधिकारी कदापि नहीं हो सकते !*
वास्तव में ऐसी बात नहीं है ! एक पिता तो अपने सभी पुत्रों को समान दृष्टि से प्यार करता है एवं उनकी सब प्रकार से उन्नति चाहता है ! पूर्व कर्मानुसार उनकी रूचि एवं योग्यता बिस्तारित होती है ! इसी कारण विभिन्न प्रयत्न करते रहने पर भी यदि अपने पिता की इच्छा अनुसार अपनी सर्वांगीण उन्नति एक समान स्तर पर नहीं कर पाते तो इसमें पिता की कृपा तथा उसकी समदर्शिता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता ! फिर भी जो पुत्र अपने पिता की इच्छा को निकट से जानकर उसका श्रद्धा पूर्वक आदर करता है और तदनुसार स्वयं आचरण करने लगता है वह पिता की कृपा का विशेष अधिकारी बन जाता है ! जैसा कि बाबा जी ने मानस में संकेत दिया है :--
*एक पिता के विपुल कुमारा !*
*होहिं पृथक गुन सील अचारा !!*
*कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता !*
*कोउ धनवंत सूर कोउ दाता !!*
*कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई !*
*सब पर पितहि प्रीति सम होई !!*
*कोउ पितु भगत वचन मन कर्मा !*
*सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा !!*
*सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना !*
*यद्यपि सो सब भांति अयाना !!*
*अर्थात्:-* एक पिता के कई पुत्र पृथक-पृथक् गुण , स्वभाव तथा आचरण वाले होते हैं ! कोई विद्वान होता है , कोई तपस्वी , कोई ज्ञानवान , कोई धनवान् ,कोई शूरवीर , कोई दानी , कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है ! पिता का उन सभी पर प्रेम होता है ! *किन्तु उनमें से यदि कोई मन , वचन और कर्म से पिता का आज्ञाकारी और सेवक होता है , स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता तो वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्यारा होता है चाहे वह सब प्रकार से अंजान ही हो !*
मानव जीवन ही ऐसा स्वर्णिम अवसर है जिसमें प्रत्येक को *भगवत्कृपा* की अनुभूति हो सकती है आवश्यकता है केवल श्रद्धा एवं विवेकशील बुद्धि का आश्रय लेकर अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्म में तत्पर रहने की ! संसार में जितने भी बड़े-बड़े कार्य हुए और हो रहे हैं उनका कोई न कोई संचालक अवश्य था और है ! जंगल के वृक्ष एवं वनस्पतियों को रोपने वाले व्यक्ति की हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते , किंतु सार - संभाल के साथ लगाए गए किसी उद्यान के पंक्तिबद्ध वृक्ष एवं पौधों को देखकर हमारे मन में उस उद्यान की योग्य कर्ता - भर्ता , संरक्षक व्यक्ति के अस्तित्व का विश्वास अवश्य हो जाता है ! यद्यपि उद्यान में हमें उसका स्वामी प्रत्यक्ष नहीं दिखाई पड़ता किंतु हम सहज भाव से उसकी मान्यता को श्रद्धा पूर्वक स्वीकार कर लेते हैं ! यही बात सृष्टिकर्ता के संबंध में भी पूर्ण रूप से माननीय हो सकती है ! जब एक उद्योगपति कोई कारखाना स्थापित करता है तब उसके लिए मशीनरी आदि उपकरण चलाने के साथ-साथ कारखाने के कर्मचारियों की सुख-सुविधाओं की समुचित व्यवस्था भी करता है , जिससे कारखाना नियमित रूप से निर्बाध चलता रहे और कारखाने की नियमित रूप से देखभाल भी स्वयं करता है या अपने विश्वसनीय अधिकारियों द्वारा किए जाने की व्यवस्था रखता है ! यह विश्वसनीय व्यक्ति *विशेष भगवत्कृपा* के पात्र होते हैं क्योंकि उनकी आचरण पर कारखाना के मालिक को पूर्ण विश्वास होता है ! यही नियम मानव मात्र पर लागू होता है !