*भगवतकृपा* प्राप्त करने के लिए लोग भगवान से संबंध बनाने का प्रयास करते हैं उनको शायद यह नहीं पता है कि भगवान और भक्त के बीच दयालु - दीन , दानी - भिखारी , पतितपावन - पातकी , नाथ - अनाथ आदि नित्य सिद्ध और स्वत: सिद्ध संबंध बतलाए गए है ! बीच में मात्र विस्मृति है ! हम अपना संबंध भूले हुए हैं ! अल्पज्ञता के कारण , पर भगवान तो सर्वज्ञ हैं , हमें कैसे भूल सकते हैं , जीव एवं ईश्वर के बीच अनेक संबंध हैं उनमें किसी एक को केवल ठीक-ठीक जान लेना ही *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सरल मार्ग है ! अशांति भाव , अंगांगिभाव , जन्य - जनकभाव , सख्यभाव और दास्यभाव आदि *स्वत: सिद्ध* है ! एक गगन है और दूसरा तारा , एक सागर है दूसरा बिंदु , एक वृक्ष है दूसरा फल , एक आधार है दूसरा आधेय , एक भित्ति है दूसरा उस पर अंकित चित्र , श्रुति - स्मृति , ऋषि - मुनि एवं साधु-संतों के मतानुसार तो अवतार - लीलाओं के क्रम में अवतरित श्री भगवान के परिकर भी *नित्य सिद्ध* हैं ! वस्तुत: उनके लिए साधनों की अपेक्षा नहीं है , तथापि लोकमर्यादा के पालन की दृष्टि से साधन - भजन करते हुए हमारा पथ प्रदर्शन करते रहते हैं ! *कौशल्या , यशोदा , देवकी , रोहिणी एवं दशरथ , नंद , वसुदेव आदि प्रभु की लीला के अंतरंग पात्र हैं ! नित्य सिद्ध परिकर हैं !* ब्रज की गोपियों में भी कुछ तो *नित्यसिद्ध* थी और कुछ *साधनसिद्ध* ! गोपियों ने अपनी दिनचर्या में ही साधनों को समाविष्ट कर रखा था ! वह घरेलू कार्यकलापों में ही परमात्मा , सर्वेश्वर श्याम सुंदर से अहर्निश युक्त थीं ! श्री कृष्ण से उनका नित्य संयोग था ! वियोग की लीलाएं तो मात्र बाह्य लीलाएं थीं ! *वेदव्यास जी महाराज* गोपियों की दशा का वर्णन करते हुए लिखते हैं :---
*या दोहने$वहनने मथनोपलेप-,*
*प्रेंगेगंनार्भरुदितोक्षमार्जनादौ !*
*गायन्ति चैनमनुरक्तधियो$श्रुकण्ठ्यो ,*
*धन्या ब्रजस्त्रिय उरूक्रमचित्कयाना: !!*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* गायों को दुहती हुई , थान कूटती हुई , चावल और चूरा तैयार करती हुई , घर दरवाजों को लीपती हुई , दही - दूध को बिलोती हुई , पलने पर रोते हुए बच्चों को लोरियां सुना कर चुप कराती हुई , तुलसी आदि पौधों में जल देती हुई , झाड़ू बहारू लगाती हुई , *किमधिकम्* वे अपने सारे घरेलू काम काजमें लगी हुई थीं फिर भी गाढ़ अनुराग पूर्वक गोविंद के गुण गाती गाती रोने लगती थीं ! उनका कंठ गदगद हो जाता था ! *शुकदेव जी कहते हैं :- परीक्षित !* ब्रज की रमणियां धन्य है क्योंकि उनके चित्त मैं सदैव श्याम सुंदर निवास करते थे ! इसीलिए कहा गया है कि :- कोई भी काम करते रहो परंतु निरंतर भगवान का नाम लेते रहना चाहिए ! यथा :--
*जिस देश में जिस वेश में परिवेश में रहो ,*
*राधारमण राधारमण राधारमण कहो !!*
*जिस हाल में जिस काल में जंजाल में रहो ,*
*राधारमण राधारमण राधारमण कहो !!*
(संकलित)
मानव देह की प्राप्ति तो *भगवत्कृपा* का ही फल है ! स्वर्ग-नर्क तथा अपवर्ग तक पहुँचाने में यह सीढ़ी का काम करता है ! भवसागर के लिए यह (मानव शरीर) एक प्रकार का बेड़ा (बाँस या लकड़ी का ठठ्ठर) है ! नाव एवं जहाज तो कभी टूट एवं डूब भी जाते हैं परंतु बेड़ा अपनी विशेषता रखता है ! वह पानी पर तैरता रहता है ! उस पर बैठने वालों को डूबने का भय नहीं रहता ! साधनाकाल में साधक जिस प्रकार के भाव से और जैसी श्रद्धा से प्रभावित होकर परमात्मा की उपासना करता है उसको उसी भाव के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति होती है ! जो अभेदरूप से उनकी उपासना करते उन्हें अभेदरूप से परमात्मा की प्राप्ति होती और जो भेदरूप से भजते हैं उन्हें भगवान भेदरूप से दर्शन देते हैं ! *भगवत्कृपा* की वर्षा करते हैं ! *भगवत्कृपा* अचिंत्य और अतर्क्य है !