मानव जीवन बड़ा उतार-चढ़ाव भरा होता है ! मनुष्य को कोई न कोई दुख तथा सुख होता रहता है ! पूरे जीवन काल में मनुष्य विभिन्न परिस्थितियों से होकर गुजरता है ! इन परिस्थितियों को देखकर मनुष्य समझता है कि ईश्वर न्यायकारी एवं अन्यायकारी दोनों है *परंतु भक्तों का भगवान तो केवल न्यायकारी ही नहीं है बल्कि वह प्रेमी और कृपालु भी है !* सत्य बात तो यह है कि न्याय के लिए ईश्वर को मानने की कोई जरूरत नहीं ! कर्म के अनुसार फल तो ईश्वर को ना मानने वालों को भी मिलता ही है ! न्यायकारी ईश्वर जीव से प्रेम क्योॉ करेगा और उससे क्यों मिलेगा , क्योंकि प्रेम और ईश्वर का मिलना किसी कर्म का फल नहीं हो सकता ! कर्म का फल तो :---
*पनर$पि जननं पुनर$पि मरणं ,*
*पुनर$पि जननी जठरे शयनं*
*अर्थात्:-* बार-बार जन्मना और मरना ही है ! अतः जो संसार में ही रमण करना चाहते हैं उससे ऊपर उठना नहीं चाहते उनके लिए ईश्वर न्यायकारी है ! *पर जो संसार से ऊपर उठना चाहते हैं उनके लिए हुए न्यायकारी ही नहीं परम दयालु भी हैं !* यदि भगवान बिना हेतु के दया करने वाले और पतित पावन नहीं होते तो कोई उनको प्राप्त ही नहीं कर सकता ! क्योंकि संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो पतित ना हो , जिसने पाप ना किया हो ! कोई नहीं कह सकता कि मैंने कोई पाप नहीं किया है , कोई नहीं कह सकता कि मैं पतित नहीं हूँ ! पतित का अर्थ है अपनी जगह पर ठीक ठीक ना रहने वाला ! इस दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य पतित है ! जो विवेक के द्वारा शरीर से अपने को अलग अनुभव करके कर्मों से संबंध त्याग कर सद्गति प्राप्त करना चाहता है उसको भी *भगवत्कृपा* या ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती ! सद्गति तो ईश्वर को न मानने वालों को भी मिल जाती है ! ईश्वर की आवश्यकता तो वास्तव में पतित प्राणी को ही है क्योंकि भगवान पतित पावन हैं ! अतः साधक का काम है उसकी शरण में जाना ! पतित से पतित भी यदि भगवान की शरण में चला जाता है तो भगवान उसका त्याग नहीं करते :--;
*सरन गये प्रभु ताहु न त्यागा !*
*बिस्व द्रोह कृत अघ जेहिं लागा !!*
(मानस)
यदि बिस्वद्रोह जैसा भी पाप करके कोई भगवान का आश्रय लेता है , शरणागत होता है तो भगवान उसको अपनाकर *भगवत्कृपा* की सुधाधारा से अभिसिंचित कर देते हैं ! भगवान शरणागतवत्सल हैं ! यह उनकी भक्तवत्सलता ही है कि वे स्वयं घोषणा कर रहे हैं :---
*सरनागत कहुँ जो तजहिं निज अनहित अनुमानि !*
*ते नर पाँवर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि !!*
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं :-- जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं वे पामर (क्षुद्र) हैं , पापमय हैं , उन्हें देखने में भी हानि है अर्थात् पाप लगता है ! भक्तों पर यह *भगवत्कृपा* ही है जो कि भगवान के मुखारविन्द से वाणी बनकर बरस रही है ! ब्रह्महत्या को घोर पाप की संज्ञा दी गयी है ! परंतु यदि ऐसा कृत्य करने के बाद प्राणी प्रायश्चित्त करते हुए भगवान की शरण में चला जाता है तो उसको भी भगवान अपना ही लेते हैं :--
*कोटि विप्र बध लागहिं जाहू !*
*आये शरन तजहुँ नहिं ताहू !!*
(मानस)
*भगवत्कृपा* प्राप्त करना है तो भगवान की शरण में जाना ही होगा !इस संसार में कोई किसी का नहीं है दुर्दिन में सभी ठुकरा देते हैं ! इसलिए साधक को यह चाहिए कि किसी दूसरे को अपना न माने एवं किसी दूसरे की ओर आंख उठाकर ना देखें जो संसार उसका त्याग कर रहा है , उसे ठुकरा रहा है ! उससे कोई भी आशा न करें ! शरणागत पर *विशेष भगवत्कृपा* होती है , उसकी समस्त आवश्यकता अपने आप पूर्ण होती ! उसके सारे पाप अपनाकर भगवान उसे अपना बना लेते हैं ! जैसे कोई फल खरीदने बगीचे में जाय तो उसको फल का ही दाम देना होता है परंतु उस बगीचे में मिलने वाली निर्मल छाया एवं शुद्ध वायु के लिए कुछ भी नहीं पड़ता ! अत: साधक को चाहिए कि अपने को पतित एवं भगवान को पतितपावन मानकर उनके प्रति समर्पण कर दे ! तभी उसका चित्त शुद्ध होगा और उसको *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होगी |