विश्व ब्रह्मांड का संचालन कृपाशक्ति की महिमा से ही हो रहा है ! यह अनंत रूप धारण करके विश्व का कल्याण कर रही है ! सूर्य में यही दीप्तिरूप है तथा विश्व में सबको समान रूप से प्रकाश और ऊष्मा प्रदान करके जीवन दान करते रहना भी इसी *भगवत्कृपा* का ही सत्कार्य है !
*भगवत्कृपा* की महिमा अपरंपार है कहा गया है :--
*जन्माद्यस्य यत:*
(ब्रह्म सूत्र)
*अर्थात:-* इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति स्थिति और विनाश जिससे होता है वह ब्रह्मा है ! वस्तुतः उत्पत्ति स्थिति और विनाश की शक्ति *भागवती कृपा* का ही प्रतीक है ! कृपा ही सर्जन करती है , वही पालन और संहार भी करती है :--
*तत्वदृष्टि से कृपा शक्ति बहु रूप दिखाती !*
*जड़ जीवों को कभी नहीं प्रत्यक्ष दिखाती !*
*सकल सृष्टि संचालन भगवत्कृपा से होता !*
*अभिमानी निज कृत्यों से संसार में रोता !!*
(स्वरचित)
तत्व की दृष्टि से कृपा शक्ति की कृति समझ में आती है परंतु अनेक प्राणियों को इसकी प्रत्यक्ष अनुभव क्यों नहीं होता ? घट घट में व्याप्त यह चेतन कृपा शक्ति सारे प्राकृतिक व्यापारों का संचालन करती है ! कठपुतली के समान सबको नचाती रहती है ! उसी चेतनशक्ति के संपर्क का सही मार्ग ना जान पाने के कारण उसे प्राप्त करने के लिए व्याकुल पञ्चभौतिक पुतला उन्नति - अवनति , यश - अपयश आदि नाना भूमिकाओं में नाचता रहता है ! हर्ष - शोक , सुख - दुख आदि द्वंदों का भागी बनता है ! जीव को कृपा की अनुभूति तो होती है परंतु जब तक उसको कृतित्व का अभिमान रहता है वह माया के पाश में आबद्ध रहता है ! यद्यपि वह *भगवत्कृपा* के सहारे ही जीता है तथापि माया अहंकारगत् विमूढ़ता उसे कृपा की प्रत्यक्ष शीतल अनुभूति से दूर रखती है ! गीता कहती है ;--
*प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः !*
*अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
सारे कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए हुए हैं तो भी अहंकार से विमूढ़ अंतःकरण वाला पुरुष *मैं कर्ता हूं* ऐसा मान लेता है ! जब तक जियो अपने को कर्ता समझता है तब तक वह *भगवत्कृपा* का रसास्वादन नहीं कर सकता ! *भगवत्कृपा* की अनुभूति से दूर रहने के कारण ही उसे माया कृत दु:ख - सुख , मान + अपमान आदि का भोग भोगना पड़ता है ! यह कृपा का एक आश्चर्यमय स्वरूप है ! जब वह भगवच्छरणापन्न हो जाता है तो उसकी जीवनधारा का स्रोत भगवान की ओर मुड़ जाता है ! वह उनकी कृपा की प्रत्यक्ष अनुभूति करने लगता है ! साधन में भय - प्रलोभन आदि सामने आते रहते हैं और जब मनुष्य स्वयं को भगवान को समर्पित कर देता है तब उस पर *विशेष भगवत्कृपा* होती है ! तब उसे *भगवत्कृपा* की अनुभूति भी होती है और उसे *भगवत्कृपा* के तत्व को जानने समझने का अवसर भी मिलता है ! *भगवत्कृपा* के तत्व को समझ लेने के बाद मनुष्य को कुछ भी समझना और शेष नहीं रह जाता है !