यह सारा संसार स्वार्थमय है ! बिना स्वार्थ के इस संसार में कोई भी कार्य नहीं होता ! इसकी घोषणा *गोस्वामी तुलसीदास जी* करते हैं :--
*सुर नर मुनि सब कर यह रीती !*
*स्वारथ लाइ करहिं सब प्रीती !!*
(मानस)
जहां संसार में सभी कार्य स्वार्थ से होते हैं वही *भगवत्कृपा* स्वार्थ विहीन है ! परमार्थ के बस होकर ही *भगवत्कृपा* होती है ! यह संपूर्ण विश्व , वह परिपूर्ण विश्वंभर और दोनों की अनुभूति करने वाली चिंतन में सम्यक् दृष्टि की प्राप्ति ही *भगवत्कृपा* का प्रमाण है ! *गोस्वामी तुलसीदास जी* लिखते हैं :--
*बिनु सत्संग विवेक न होई !*
*राम कृपा बिनु सुलभ न सोई !!*
(मानस)
*अर्थात :-* श्री राम की कृपा के बिना सत्संग सुलभ नहीं और सत्संग के बिना विवेक दृष्टि नहीं होती और कहा गया है :--
*बिन विवेक संसार घोर निधि पार न पावे कोई !*
बिना विवेक दृष्टि के संसार सागर से कोई पार नहीं कर सकता ! *अब हम विचार करें कि* जीवन में इस परमार्थिक फल का स्वरूप क्या है ! परमार्थिक फल का स्वरूप हैं संतजन , जो निशिदिन परमार्थिक कृत्य किया करते हैं ! यथा:---
*पर कारज के कारने साधुन धरा शरीर !*
संतजन कहते हैं :- *भगवत्कृपा* के इस रस का मैं स्वयं सेवन कर रहा हूं और अन्य सबके लिए वितरण करता हूं ! सब इस रस का पान करें और ग्राम्य विषय रस में मुग्ध होकर संसार सागर में गोते न लगाएं , ना डूबे , ना बहें बल्कि तरने का उपाय करें , और यह सोचे कि *भगवत्कृपा* उपलब्ध कैसे होती है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक कुछ नहीं करना है ! मनुष्य मात्र को बस एक काम करना चाहिए !
*मन क्रम वचन छांड़ि चतुराई !*
*भजत कृपा करिहहिं रघुराई !!*
(मानस)
वैसे तो *भगवत्कृपा* सब पर एवं सब समय अनवरत बरस रही है परंतु मन वचन कर्म से संपूर्ण चतुराई को छोड़कर निरंतर श्री हरि का भजन करने से मनुष्य को *भगवत्कृपा* की अनुभूति होती है ! निरंतर भगवान का स्मरण हो , यही *भगवत्कृपा* का मूल है , और जीवन में केवल स्मरण ही रह जाए यही फल है ! स्मरण से *स्* अर्थात स्वीकृति छूट गई तो बचा *मरण* ! यही मरण है , यही संसार है , यही नास्तिकता है , *वह नहीं* यही नास्तिकता है , और *वह है* यही आस्तिकता है ! केवल *है* ही कला निरपेक्ष अनादि और अनंत है ! *इस चिन्मय सत्ता की अखंड प्रतीति तत कृपा ------ भगवत्कृपा है !* यह परम पावन परमार्थिक भगवत कृपा किसे प्राप्त होती है इस पर विचार किया जाए जिसका भ्रम निर्मूल हो गया हो वही तनिष्क और तक परायण है और वही भागवत कृपा प्राप्ति का यथार्थ पात्र है
*तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः !*
*गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* जिनकी बुद्धि और मन तद्रूप है तथा उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही है ! जिनकी निरंतर एक ही भाव से स्थिति है ! ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित हुए अपुनरावृति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं ! उपरोक्त कथन के अनुसार *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए मन में किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए ! जब तक मन में किसी भी प्रकार का भ्रम है तब तक *भगवत्कृपा* के विषय में विचार ही नहीं किया जा सकता और ना *भगवत्कृपा* प्राप्त की जा सकती !