*कृपा* करके ईश्वर ने जो सृष्टि बनाई है उसमें प्रत्येक जड़ - चेतन स्वयं में उत्कृष्ट परंतु इन सब में यदि सर्वोत्कृष्ट है तो वह *भगवत्कृपा* क्योंकि मनुष्य चाहे जितना विकास कर ले परंतु उसकी शक्ति सीमित ही रहती है ! मानव कि वह ससीम शक्ति और बुद्धि जहां कोई काम नहीं कर पाती मनुष्य जहां सर्वथा निरुपाय हो जाता है ! वहीं से असीम शक्ति संपन्न *अहैतुकी भगवत्कृपा* का कार्य प्रारंभ होता है ! *भगवत्कृपा* ही सर्वोपरि है , इसमें संदेह नहीं ! आस्तिक या नास्तिक , पौरस्त्य या पाश्चात्य सभी दर्शनकारों का चिंतन भागवती चेतना (सत्ता) के संदर्भ में हुआ है ! यह दूसरी बात है कि आस्तिक दार्शनिकों ने भागवती सत्ता पर अपनी अखंड आस्था व्यक्त की है और नास्तिक दार्शनिकों ने परोक्षत: ( मण्डनात्मिका शैली की अपेक्षा खण्डनात्मिका शैली में ) भागवती सत्ता को स्वीकार किया है अनेक रूपात्मक जगत में भगवान के रूप की स्वीकृतियां भी अनेक प्रकार की हो सकती है किंतु अनेक (विभक्त) में भी उन्हीं एक (अविभक्त) सच्चिदानंद स्वरूप भगवान की स्वीकृति ही उभर कर सामने आती है जिन की *कृपादृष्टि* पर सर्वोपरि है !
*जल में थल में नभ में सब मेंं ,*
*वह ईश्वर सत्ता समाई हुई है !*
*गुन अवगुन निर्गुन सगुनहिं में ,*
*बस एक वही प्रभुताई हुई है !!*
*
*कोई जानत है कोई मानत है ,*
*कोई जान न पावै छिपाई हुई है !*
*"अर्जुन" मन माहिं बिचार करो ,*
*सब पर उनकी करुणाई हुई है !!*
(स्वरचित)
ईश्वर एवं ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति विभिन्न धर्मों में हुई है *आधुनिक विचारक* मानवता के मानदंड की प्रतिष्ठा के संदर्भ में *ईश्वरवाद* की उपेक्षा करके *पुरुषार्थ* को महत्व देते हैं ! उनकी धारणा है कि *ईश्वरवाद* से *भाग्यवाद* जुड़ा हुआ है इसलिए इन दोनों वादों के व्यापक सिद्धांत से *पुरुषार्थ* की अवधारणा शिथिल पड़ जाती है किंतु उनकी यह धारणा निश्चय ही विचारणीय है ! *तात्पर्य* यह है कि *भगवत्कृपा* को सर्वोपरि मानने वाला व्यक्ति कभी *पुरुषार्थ* से अछूता नहीं रहता ! भारतीय चिंतन धारा में भगवदाश्रित रहने के साथ ही साथ *पुरुषार्थ* के प्रति सदा जागरूक रहने का संकेत किया गया है ! अपने हाथों को कार्यव्यस्त और मन को भगवदाश्रित रखने का सनातन संदेश भारतीय विचारधारा की अपनी मौलिक विशेषता है ! अहंभावना से स्वार्थमूलक कर्माशक्ति बढ़ती है परंतु मन जब भगवदाश्रित रहता है तब अहंभावना का विनाश होकर ही फलासक्ति रहित कर्मशीलता का विकास होता है ! इसीलिए कर्म मनुष्य के अधीन है परंतु उसका फल तो *भगवत्कृपा* पर ही आवृत है ! यद्यपि कुछ लोग कर्म की अवधारणा को स्वीकार नहीं करते उनका तर्क है कि कर्म सदा सकाम ही हो सकता है निष्काम नहीं ! तथापि ईश्वर को न मानने के कारण ही कदाचित वे ऐसा सोचते हैं ! पूर्वोक्त् *ईश्वरवाद से पुरुषार्थ की* अवधारणा के शिथिल पड़ने की बात अवश्य ही तथ्यहीन है क्योंकि भारतीय चिंतन पद्धति में ईश्वरीय सत्ता की स्वीकृति षडैश्वर्य संपन्न प्रधान पुरुष के रूप में की गई है ! ऐश्वर्य की प्राप्ति बिना *पुरुषार्थ* के कष्टसाध्य / असाध्य है ! यहां तक कि मोक्ष प्राप्त भी *पुरुषार्थ* सिद्ध का ही प्रतीक है ! भगवान की षडैश्वर्य संपन्नता उनमें निहित पुरुषार्थ के प्रेरणा देने वाली सत्ता को संकेत करती है *भगवत्कृपा* से ही मनुष्य को धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं और इन्हीं चारों को मिलाकर *पुरुषार्थचतुष्टय* कहा गया है ! बिना *भगवत्कृपा* के कोई भी पुरुषार्थ नहीं पूर्ण हो सकता !