*भगवत्कृपा* सरल एवं सहज है तो उसका कारण है कि भगवान स्वयं *कृपानिधान* है ! दया दुखितों पर , वात्सल्य दोष युक्त अल्पज्ञों पर , सुशीलता दीन हीन भक्तजनों पर तथा उदारता सत्कृतों पर ही सुशोभित होती है ! अवतार लेकर तो वे भक्तों के साथ इतनी आत्मीयता कर लेते हैं कि उनके संबंध से अपनी श्रेष्ठता का भी अनुभव करने लगते हैं ! लंका विजय के बाद लौटते समय जब पुष्पक विमान में बैठे हुए भगवान श्रीराम को दूर से ही अयोध्या दिखाई पड़ी तो वे सीता जी से कह पड़े :--
*"एषा सा दृश्यते सीते राजधानी पितुर्मम्"*
(वा०रा०)
*अर्थात:-* भगवान श्री राम कहते हैं :- सीते ! देखो यह मेरे पूज्य पिताजी की राजधानी अयोध्या दिखाई पड़ रही है ! यह मेरा निजधाम है ! ऐसा कह कर चौदह वर्ष के पश्चात भी उनके संबंध से भगवान श्री राम अपने को कृतार्थ मान रहे हैं ! *अभिप्राय यह है कि* मैं परब्रह्म का अवतार हूं यह बात कोई माने या ना माने परंतु मैं दशरथकुमार हूं क्या कोई इस बात में भी कुछ शंका कर सकता है ? हमें कोई भगवान कहे या ना कहे लेकिन दशरथ का पुत्र तो कहेगा ही ! इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ?
*यज्जातीयो यादृशो यत्स्वभाव: ,*
*पादच्छायां संश्रितो यो$पि को$पि !*
*तज्जातीयस्तादृशस्तत्स्वभाव: ,*
*श्र्ल्प्यित्येनं सुन्दरो वत्सलत्वात् !!*
(सुन्दरबाहुस्तव)
*अर्थात:-* भगवच्चरणारविंदो की छाया का अस्तित्व जिस किसी प्रकार का , जो कोई भी , जिस किसी जाति का हो , जिस किसी प्रकार का और जैसे भी स्वभाव का हो प्रभु उसी जाति के , उसी प्रकार के और उसी स्भाव के बनकर *कृपावात्सल्य* होकर उसका प्रेम पूर्वक आलिंगन करते हैं ! वे *कृपापरवश* प्रेमियों के प्रेम बंधन में प्रीति पूर्वक स्वयं बंध जायं तो उनको कौन रोक सकता है ? *क्योंकि भगवत्कृपा ही जीवलोक की रक्षिका है !* धर्म संरक्षण तथा प्रभु के आत्मीयजनों की सुरक्षा भी *कृपाशक्ति* के ही अधीन है ! आदि कवि वाल्मीकि जी कहते हैं :---
*रक्षिताजीवलोकस्य धर्मस्य च परिरक्षिता !*
*रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता !!*
(वा०रा०)
*कृपा* को प्राप्त करने के लिए आत्मबल की परम आवश्यकता है ! क्योंकि क्षुद्र विषयों को भोगने के लिए भी जब शक्ति की आवश्यकता पड़ती है तब भगवद्विषयानुसंधान के लिए कितना अपरिमित आत्मबल चाहिए यह सभी विचारक समझ सकते हैं ! क्योंकि :-
*नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:*
(मुण्डकोपनिषद)
परंतु जब कोई साधक प्रभु के प्रेमरस का आस्वादन करना चाहता है तब यह करुणानिधान स्वयं *कृपापूर्वक* उसे बल ( मुझे भगवत्प्रेम तो अवश्य प्राप्त होगा ही , इस प्रकार का उत्साह और विश्वास ) प्रदान करते हैं जिसको पाकर जीव कृतार्थ हो जाता है :--
*"देवकल्पमृजुं दान्तं रिपूणामपि वत्सलम्"*
(वा०रा०)
*अर्थात:-* प्रभु श्रीराम देवता के समान शुद्ध , सरल और जितेंद्रीय तो है ही परंतु विलक्षणता यह है कि वह शत्रुओं पर भी *कृपावत्सलता* रखते हैं ! राम रावण युद्ध में रावण श्री राम का नाम मिटा देना चाहता था , उसने घमासान युद्ध किया , सबका बदला चुका लेने की ठान ली , परंतु प्रभु ने शत्रु को संतुष्ट करने के लिए अपनी कुछ शक्ति का प्रयोग कर दिखाया ! रावण के रथ आयुध सभी नष्ट हो गए वह मरणोन्मुख हो गया , *उस समय प्रभु के हृदय में करुणा छा गई* दयालु देव द्रवित होकर कहने लगे :---
*कृतं त्वया कर्म महत् सुभीतं ,*
*हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम् !*
*तस्मात् परिश्रान्त इति व्यवस्थ ,*
*न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि !!*
(वा०रा०)
*अर्थात :-* भगवान श्रीराम करते हैं ! हे राक्षसराज रावण ! तुमने आज बड़ा भयंकर काम (युद्ध कर्म) किया है ! मेरे अजेय वीरों को तुमने आहत कर दिया है , आज तुम अत्यंत थक गए हो , इसलिए थके हुए को मैं बाणों से नहीं मारना चाहता हूं , *कृपालु ने कृपा कर* पुनः स्पष्ट करते हुए कहा:--
*प्रयाहि जानामि रणार्दितस्त्वं ,*
*प्रविश्य रात्रिर्चरराज लंकाम् !*
*आश्वस्य निर्याहि रथी च धन्वी ,*
*तदा बलं प्रेक्ष्यसि मे रथस्य: !!*
(वा०रा०
*अर्थात:-* निशाचरराज ! जाओ ! आज तुम विश्रान्ति के लिए लंका में चले जाओ ! तुम संग्राम में थक कर बहुत ही लाचार हो गए हो , घर में विश्राम कर , स्वस्थ होकर तथा नया रथ , धनुष - बाण शस्त्र - अस्त्र आदि से सुसज्जित होकर पुनः आना ! तब मेरे बल को देखना ! *कितनी कृपा है* , कितनी निर्भयता है , कितनी शक्ति है ! आचार्य विद्वानों ने प्रभु के इस *कृपागुण* का महत्वांकन किया है :---
*यत्तादृशागसमरिं रघुवीर वीक्ष्य ,*
*विश्रास्यतामिति मुमोचिथ मुग्धमाजौ !*
*को$यं गुण: कतरकोटिगत: कियान्वा ,*
*कस्य स्तुते: पदमहो बत फस्य भूमि: !!*
(अतिमानुपस्तव)
*अर्थात:-* हे रघुवीर ! जो इस प्रकार के महाशत्रु , देवकंटक , त्रिभुवनविजयी रावण को आपने *कृपापरवश* "जाओ विश्राम करो" कहकर प्राणसंशय से मुक्त कर दिया ! *वह आपका विलक्षण गुण कैसा , किस कोटि का और कितना महान है* इस स्तुति के योग्य अन्य कौन हो सकता है ? *कृपानिधान* भगवान अयोध्या में पधार कर समस्त सृष्टि में *अयोध्या पर विशेष भगवत्कृपा* का जो दर्शन कराया इसकी समता कहीं भी किसी भी काल में नहीं की जा सकती ! *क्योंकि यह विशेष भगवत्कृपा ही है !*