*भगवत्कृपा* क्या है ? हम *भगवत्कृपा* को कैसे समझ सकते हैं ! *आईये इस पर सूक्ष्मता से विचार करके समझने का प्रयास किया जाय:-* जब हम अपने को भ्रान्त और निराश्रित अनुभव करते हैं और आगे बढ़ने का रास्ता नहीं देख पाते , अचानक ही हमारे अंदर एक दिव्य प्रकाश किरण उद्भूत हो जाती है और एक अनजानी शक्ति हमें भयावने जंगल से बाहर निकाल ले जाती है ! *यही भगवत्कृपा है* अतएव किसी भी काल , परिस्थिति या घटना में हमें विषादयुक्त या आशाहीन होने की आवश्यकता नहीं है ! *कृपा के आशीर्वाद स्वरुप* प्राप्त व्यथा का प्रत्येक आधार परमानंद की ओर पदारोहण में सहायक सिद्ध होता है ! एक नेत्र है , जो अपनी प्रेम भरी सावधानी से निद्रा रहित रहता है और भुजा है जो सहायता और आराम देने में क्लान्तिरहित है , इसी प्रकार हमें निरंतर सजग और उत्साह से परिपूर्ण रहना चाहिए ! नष्टप्राय अनुभव करना तो मानो ईश्वर को अस्वीकार करना तथा उनकी कृपा को मन से दूर भगाना है !
*ऊँच-नीच व्यवहार नाथ करते नहिं प्यारे !*
*पाप-पुन्य का भाव कृपा नहिं हृदय बिचारे !!*
*सब पर कृपा बराबर करती कृपालु अम्बा !*
*कृपाशक्ति भगवान की ममतामय जगदम्बा !!*
*बालक ज्ञानी-मूर्ख सभी हैं माँ को प्यारे !*
*वैसे भगवत्कृपा भेद कछु नाहिं निहारे !!*
(स्वरचित)
*भगवतकृपा* के सामने कौन अधिकारी है कौन अनाधिकारी ? सब कोई उन एक ही कृपा अम्बा की संताने हैं !उनका प्रेम सब किसी पर एक सरीखा बरस रहा है , परंतु हर एक को उसकी प्रकृति और ग्रहण-सामर्थ्य के अनुसार परस्थिति संयोग आदि देती है , किंतु कृपा मां का पूर्ण वात्सल्य प्राप्त करने के लिए हमें उसकी सर्वोच्च प्रज्ञा में एकांतिक विश्वास करना होगा ! आत्मसमर्पण का उच्चतम आदर्श स्थापित करना होगा , क्योंकि मां हमारे कल्याण के विषय में सर्वाधिक जानती है ! यदि अभीप्सा उसको अर्पित की जाए और अर्पण सचमुच पर्याप्त श्रद्धा एवं उत्साह के साथ किया जाए तो परिणाम आश्चर्यजनक होगा !
*कृपा की यदि कामना तो तीन बाते जान लें !*
*मन को कल्मष रहित करके प्यारे आत्मदान दे !!*
*है जरूरी पवित्रता संग श्रद्धा औ विश्वास भी !*
*तब कृपा की कामना कर ले लगा ले आस भी !!*
(स्वरचित)
*भगवतकृपा* की सहायता प्राप्त करने के लिए पवित्रता , अकल्मष में आत्मदान और सहज श्रद्धा विश्वास -- ये तीन मुख्य शर्ते हैं ! *श्रद्धा ना रखना* मानव कृपा के विरुद्ध अपनी सत्ता का दरवाजा बंद कर देना है ! *भगवत्कृपा* सदैव कल्याण कार्य करने के लिए तैयार है पर हमें सेवा करने का मौका देना चाहिए ! कम से कम इस के कार्य में अवरोध नहीं पैदा करना चाहिए ! *आत्मदान न करने से* हम अहंकार रूप अज्ञान में असहाय भाव से आबद्ध रह जाते हैं ! आत्मदान से पवित्रता आती है और पवित्रता से कृपा का कार्य निश्चित रूप से सरल हो जाता है ! हम अपने आप को पूर्ण रूप से भगवान को सौंप दें तभी हम भली प्रकार से *भगवत्कृपा* को प्राप्त कर सकेंगे !
विश्व प्रकृति की गतियों पर कठोर तर्कसंगत नियन्तृत्व न्याय कहलाता है ! परिस्थिति का अज्ञात विधान , कारण की रूढ़िगत विधि और परिणाम -- इन तीनों से वैश्व शक्तियों की क्रियाएं शासित होती हैं !