इस संसार पर निरंतर *भगवत्कृपा* की वर्षा हो रही है आवश्यकता है उसे प्राप्त करने के लिए उद्योग करने की ! *विचार कीजिए* वर्षा के समय यदि किसी पात्र को खुले स्थान में सीधे रखें तो वह जल्द से पूर्ण हो जाएगा और यदि उसे उलट कर रख दे तो जल उस पर गिरते ही इधर-उधर बिखर जाएगा ! इसी प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्ति की अनुभूति के लिए भगवान की सम्मुखता अपेक्षित है ! जैसे सूर्य की किरणें सब पर समभाव से पड़ती हैं परंतु सूर्यकांत मणि पर पड़ने से उसमें विशेष शक्ति आ जाती है ! इसी प्रकार यद्यपि *भगवत्कृपा* सभी पर समभाव से होती है तथापि सुयोग्य पात्र *(जिसे भगवान की मंगलमयी अहैतुकी कृपा पर पूर्ण एवं दृढ़ विश्वास है तथा जिस ने एकमात्र भगवच्चरणों का ही आश्रय लिया है वही प्रभु कृपा का सुयोग्य पात्र है)* के संसर्ग से वह विशेष रूप से प्रकाशित अथवा फलवती होती है ! भगवन्नाम जप में जिसकी लगन लग जाती है उसे शीघ्र ही *भगवत्कृपा* का अनुभव होने लगता है ! हमारी दृष्टि जगत के मिथ्या आश्वासनों की ओर से हटकर जब एकमात्र *भगवत्कृपा* की ओर ही लग जाती है तब हमें *भगवत्कृपा* की अनुभूति होने लगती है ! यहां यह भी समझ लेना चाहिए कि *भगवत्कृपा* की पहचान भी *भगवत्कृपा* से ही होती है ! साधक साधना करके *भगवत्कृपा* तो प्राप्त करना चाहते हैं परंतु जो उद्योग उनको करना चाहिए वह नहीं कर पाते हैं ! *साधक तीन प्रकार के कहे गए हैं*
*पहले प्रकार* का साधक *भगवत्कृपा* की चाहत तो करता है परंतु अपनी ओर से कोई भी साधन नहीं करता ऐसे साधक को अल्प लाभ होता है ! *दूसरे प्रकार का साधक* उत्साह पूर्वक साधन तो करता है परंतु उसके करने में अपने बल परिश्रम को ही महत्व देता है *भगवत्कृपा* को नहीं ! ऐसे साधक को वास्तविक लाभ की प्राप्ति विलंब से होती है ! *तीसरे प्रकार का साधनक* उपर्युक्त दोनों प्रकार के साधकों से उत्तम माना गया है वह दूसरे प्रकार की साधक की भांति उत्साह पूर्वक अपने पूर्ण सामर्थ्य के अनुसार साधन तो करता है पर उसमें अपना बल न मानकन केवल *भगवत्कृपा* का ही बल मानता है ! वह मानता है कि मुझ पर भगवान की अपार *अहैतुकी कृपा* है इसलिए मुझे साधन करने का बल प्राप्त हुआ और मुझसे साधन बन पड़ता है , यदि अपने बल से ही भगवत प्राप्ति होती तो बहुत पहले ही हो गई होती मुझे इतनी जन्म ना लेने पड़ते ! इस प्रकार साधक भगवान को विशेष प्रिय हैं ! अतः इसे पूर्ण लाभ प्राप्त होता है !
*भगवन्त कृपा न हुई होती ,*
*तो नर जीवन पाइ जगत में न आते !*
*घर परिवार सुबन्धु सबै ,*
*बिनु कृपा के नहिं बहु लाड लडाते !!*
*भुजबल जनबल धनबल जग के ,*
*भगवन्त कृपा बिनु कहँ मिल पाते !*
*अर्जुन" करुणा करुणाकर की ,*
*यदि होत न तो नर तन नहिं पाते !!*
(स्वरचित)
साधक को यही मानना चाहिए कि मुझसे जो कुछ भी साधन हो रहा है वह अदभ्रकरुणामय भगवान की *कृपा शक्ति* से ही हो रहा है ! साधक को अपनी ओर से पूर्ण उत्साह के साथ साधना तो करना चाहिए परंतु भरोसा अपने बल पर न रखकर *अहैतुकी भगवत्कृपा* पर ही रखना चाहिए ! इस प्रकार *भगवत्कृपा* का आश्रय लेकर साधन करने से उसकी आश्चर्यजनक उन्नति होने लगती है ! ऐसे साधक को *भगवत्कृपा* से वह तत्व मिलता है जिस से बढ़कर कोई लाभ दूसरा नहीं है !