*भगवत्कृपा* का रहस्य समझ पाना इतना सरल नहीं है ! मन में अनेकों प्रकार की भ्रांतियां समाई हुई है जिनके कारण हम *भगवत्कृपा* को नहीं समझ पाते हैं ! कुछ लोग तो यहां तक कह देते हैं कि यदि समान रूप से सभी जीवो पर *भगवत्कृपा* है तो फिर सभी जीवो को कल्याण क्यों नहीं हो जाता ? इसका उत्तर विवेचन करने से ही मिलता है कि *भगवत्कृपा* के तत्व को न जानने के कारण लोग उस कृपा से विशेष लाभ नहीं उठा पाते ! *जैसे जगत्तारिणी भागीरथी गंगा की धारा लोकहित के लिए निरंतर बहती रहती है फिर भी जो गंगा जी के प्रभाव को नहीं जानते , जो श्रद्धा भक्ति की कमी होने के कारण स्नान नहीं करते हुए वे उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते ! इसी प्रकार भगवत्कृपा का प्रभाव अहर्निश गंगा के प्रवाह से भी बढ़कर सर्वत्र बह रहा है तथापि मनुष्य उसका प्रभाव न जानने के कारण एवं श्रद्धा भक्ति की कमी होने के कारण भगवान की शरण लेकर उनकी कृपा से विशेष लाभ नहीं उठा सकते !* भगवान की सामान्य कृपा का साधारण लाभ तो सब जीवो को समान भाव से मिलता ही है परंतु जो उनकी कृपा का पात्र बन जाता है वह उससे विशेष लाभ उठा सकता है ! सूर्य की धूप और प्रकाश सर्वत्र समान भाव से सबको सुलभ है अतः समान भाव से उसका लाभ सबको मिलता है किंतु सूर्यमुखी कांच पर उसकी शक्ति का विशेष प्रादुर्भाव होता है ! उस के माध्यम से तुरंत अग्नि प्रकट हो जाती है ! सूर्यमुखी कांच की भांति जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है जिसके अंतराल में भगवान पर विशेष श्रद्धा और प्रेम होता है वह उनकी दया से विशेष लाभ उठा सकता है ! *मनुष्य के संचित , प्रारब्ध , और क्रियमाण तीनों प्रकार के कर्मों से ही भगवतकृपा का संबंध है !* पूर्व के पुण्य कर्मों का संचय *भगवतकृपा* से ही हुआ है तथा *उन संचित कर्मों* के अनुसार ही प्रारब्ध भोग का विधान भगवान दया पूर्वक जीवो के हित के लिए ही करते हैं ! अतः *भगवान की कृपा* के रहस्य को समझने वाला प्रारब्ध भोग के समय प्रत्येक अवस्था में *भगवत्कृपा* का दर्शन किया करता है ! *क्रियमाण* शुभ कर्म भी *भगवत्कृपा* से ही बनते हैं उनकी कृपा से ही मनुष्य सन्मार्ग में अग्रसर हो सकता है ! अतः सभी कर्मों से *भगवत्कृपा* का नित्य संबंध है ! श्रद्धा पूर्वक विचार करने से क्षण - क्षण में , पद पद पर , प्रत्येक अवस्था में मनुष्य को *भगवान की कृपा* के दर्शन होते रहते हैं ! सब जीवो को जल , वायु , प्रकाश आदि तत्वों से सुख मिल रहा है उनके जीवन का निर्वाह हो रहा है , खान-पान आदि कार्य चल रहे हैं यह सब *भगवत्कृपा* नहीं है तो और क्या है ?
*सुंदर मानव तन पाइ गयो ,*
*पुनि शुद्ध हवा जल जग में पायो !*
*तात मिले पितु मात मिले पुनि ,*
*भ्रात मिले बहुतै सुख पायो !!*
*सुख - सम्पत्ति अपार मिली ,*
*पर भगवत्कृपा को जानि न पायो !*
*"अर्जुन" सब पाइ के भूलि फिरैं ,*
*कहैं भगवत्कृपा प्रसाद न पायो !!*
(स्वरचित)
मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार फल भोग की व्यवस्था कर देने में *भगवत्कृपा* का ही हाथ है थोड़ा सा जप , ध्यान और सत्संग करने से मनुष्य के जन्म जन्मांतर के पापों का नाश होने का जो भगवान ने विधान बनाया है इसमें तो *अपार भगवत्कृपा* भरी हुई है ! भगवान की शरण होकर प्रेम और करुणा भाव से प्रार्थना करने पर प्रत्यक्ष प्रकट हो जाना , भक्तों के हर प्रकार के दुखों और संकटों को दूर करना , शरणागत की संसार से रक्षा करना , हर एक प्रकार के पाप कर्मों से उसे बचाना , यह उनकी *विशेष भगवत्कृपा* का ही प्रदर्शन है ! भक्त प्रह्लाद के दृढ़ विश्वास और प्रार्थना से स्वयं प्रकट होकर उसे दर्शन देना तथा संपूर्ण संकटों से उसकी रक्षा करना ! *यह भगवत्कृपा का अतिशय विशेष प्रदर्शन है !* महात्मा और शास्त्रों के द्वारा स्वत: लोगों के अंतःकरण में प्रेरणा करके स्वयं अवतार लेकर लोगों को बुरे कर्मों से हटाकर अच्छे कर्मों में लगा देना *यह भी भगवत्कृपा का विशेष प्रदर्शन है !* स्त्री , पुत्र , धन और मकान आदि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति और उनका विनाश होने में एवं सांसारिक स्वास्थ्य ठीक रहने और ना रहने में रोग और संकट आदि की प्राप्ति और उनके विनाश में तथा सुख संपत्ति और दुखों की प्राप्ति में भी अर्थात प्रत्येक अवस्था में मनुष्य को *भगवत्कृपा* का दर्शन करने का अभ्यास करना चाहिए !