पापी से पापी व्यक्ति भी यदि आर्त्त हो करके उनकी शरण में आ जाए तो भगवान उसका भी उद्धार कर देते हैं ! भगवान इसकी घोषणा करते हुए स्वयं कहते हैं :--
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज !*
*अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः !!*
( श्रीमद्भगवद्गीता )
*अर्थात:-* सभी धर्मों को (संपूर्ण कर्मों) के आश्रय को त्याग कर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्यशरण को प्राप्त हो ! मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा ! तू शौक मत कर भगवान की *परम कल्याणकारी कृपा* सब समय और सब जगह अणु - अणु में व्याप्त है ! प्राणी मात्र पर भगवान की समान *अहैतुकी कृपा* है ! भगवान कहते हैं :--
*सुहृदं सर्वभूतानाम्*
( श्रीमद्भगवद्गीता )
दिव्य *भगवत्कृपा* भक्त - अभक्त , आस्तिक - नास्तिक , भले - बुरे सभी प्रकार के व्यक्तियों पर समान रूप से सदैव बरस रही है !
*अयमुत्तमो$यमधमो जात्या रूपेण सम्पदा वयसा !*
*श्लाघ्योश्लाव्यो वेत्थं न वेत्ति भगवाननुग्रहवसरे !!*
( प्रबोध सुधाकर )
किसी पर कृपा करते समय भगवान ऐसा विचार नहीं करते कि यह जाति , रूप धन और आयु से उत्तम है या अधम , अथवा स्तुत्य है या निंन्द्य ?
*जाति रूप धन आयु का किंचित नहीं विचार !*
*सकल जगत में व्याप्त है भगवत्कृपा प्रसार !!*
(स्वरचित)
समस्त जीवो पर *अदभ्रकरुणामयी प्रभु की इतनी कृपा है* कि पूर्ण रूप से उसे समझ पाना भी असंभव है ! मनुष्य अपने ऊपर उस *अचिंत्य चमत्कारी कृपा* को जितना अधिक मानता है तथा उस पर जितना अधिक विश्वास करता है उसे उतना ही अधिक लाभ होता है ! *भगवत्कृपा* की तुलना मां की कृपा से भी नहीं की जा सकती क्योंकि मां की कृपा मोह , ममता मिश्रित होती है परंतु अचिंत्य , अनंत गुणसंपन्न *भगवान की कृपा* पूर्णता विशुद्ध होती है ! इतना ही नहीं जगत भर की माताओं की सम्मिलित कृपा उन अपरिमेय परमात्मा के *कृपा सिंधु* की एक बूंद के बराबर भी नहीं है ! भगवान परम कृपालु होने के साथ ही पूर्णकाम , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान और सर्वलोकमहेश्वर भी है ! वे सभी का अकारण हित करने वाले हैं
*कोमल चित अति दीन दयाला !*
*कारण बिन रघुनाथ कृपाला !!*
(मानस)
उस पर मंगलमयी *अहैतकी कृपा* विभिन्न रूपों में प्रकट होकर सबका मंगल करती है यह अलग बात है की *भगवत्कृपा* को मनुष्य पहचान नहीं पाता है ! यह तभी पहचान सकता है जब वह जड़ जगत के समस्त आश्रयों का परित्याग करके एकमात्र *भगवत्कृपा* का ही आश्रय ले लेता है ! *भगवत्कृपा* की पहचान क्या होती है इसके विषय में अनेकों उदाहरण पूर्व में दिया जा चुका है फिर भी *भगवत्कृपा* की पहचान क्या होती है इसके बाद इसके विषय में पुनः कुछ विचार रखने का प्रयास करूंगा !