यदि ध्यान से देखा जाए तो भगवान का स्वभाव ही *अहैतुकी कृपा* करना है ! भगवान सदैव कृपा बरसाते रहते हैं कोई भी क्षण *भगवत्कृपा* के बगैर तो होता ही नहीं ! होता तुलसीदास जी लिखते हैं
*तुलसी उराउ होत राम को सुभाउ सुनि ,*
*को न बलि जाइ न बिकाइ बिनु मोल को*
(कवितावली)
मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को भलीभांति प्रभावित करने वाले निरुपम ग्रंथ *श्रीरामचरितमानस* से मानव को कितना प्रकाश मिल सकता है यह मानस का प्रायः प्रत्येक पाठक जानता है ! साहित्य की महत्ता यह नहीं है कि वह एक विशिष्ट वर्ग तक सीमित रह जाय , उसकी एक-एक पंक्ति , एक-एक शब्द और शब्द का एक-एक वर्ग मानव मात्र के हृदय को स्पंदित करने वाला होना चाहिए ! लोकनायक *तुलसीदास जी* का संपूर्ण वांग्मय उनकी लोकानुग्रहकारिणी भावना का परिणाम है जो प्रयासजन्य नहीं स्वभावजन्य है ! उनकी अभिव्यक्तियों में पयस्विनी की सहजता है ! यथा :---
*चली सुभग कविता सरिता सो !*
*राम विमल जस जल भरिता सो !!*
(मानस)
मायिक जगत की इन्द्रात्मिका सरिता में डूबता उतराता , हंसता रोता और उसे ही श्रेय मानकर उसका अभिनंदन करता हुआ आज का यांत्रिक मानव अहंमन्यता की अर्गला से विजडित है ! आज उसकी सारी दौड़-धूप मोहमूला प्रकृति तक ही सीमित है , परंतु मनुष्य का चरम प्राप्तव्य जड़प्रकृति नहीं प्रत्युत प्रकृति से सर्वथा विलक्षण कोई अन्य वस्तु है , जो परम चैतन्य है और जिस के अनुग्रह से जागतिक व्यापार में चेतना विलास करती है ! अतएव कर्तव्य यही है कि इस जड़ और मर्त्य देह के द्वारा उस अक्षर अमृतत्व को प्राप्त किया जाए ! _______ *सृष्टि में जड़ क्या है ?* यह समझ लिया जाय ___
*गगन समीर अनल जल धरनी !*
*इन्ह कै नाथ सहज जड़ करनी !!*
(मानस)
*अर्थात्:--* आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी -- इन सबकी करनी *स्वभाव से ही जड़ है !*
और मर्त्य ? *मर्त्य क्या है ?* यह बताते हुए तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं :--
*अंड कटाह अमित लयकारी !*
*काल सदा दुरतिक्रम भारी !!*
(मानस)
जो सर्वभूतों की हृद्देशमें अवस्थित और *कृपालुता* ही जिसका स्वरूप है ! आदि में व्यक्त हुई उस अक्षर ब्रह्म की कल्पना *एको$हम् बहुस्याम्* ही अनुग्रह भावना से स्नात् है अर्थात निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुण साकार होना *कृपामूलक* है ! यथा :--
*अगुन अरूप अलख अज जोई !*
*भगत प्रेम बस सगुन सो होई !"*
(मानस)
जीव पर जब *भगवत्कृपा* होती है तो वह निर्गुण निराकार ब्रह्म सगुण साकार हो करके इस धरा धाम पर अवतरित होता है और अपनी कृपा बरसाता है ! यह कृपा भी किसी अन्य की इच्छा से नहीं स्वेच्छा से है और यही इच्छा उनका धर्म है , उनका स्वभाव है !