बिना *भगवत्कृपा* के पौरुष की सफलता में भी संदेह ही रहता है इसीलिए पौरुष और *भगवतकृपा* को अन्योन्याश्रित मानकर ही अविश्रांत भाव से कर्म में प्रवृत्त रहना चाहिए ! *भगवत्कृपा* उसी पर होती है जिसे कर्तृत्वाभिमान नहीं होता ! जो अहंकारविमूढ़ होता है वही अपने को कर्ता मानता है ! श्री भगवान स्वयं कहते हैं :---
*अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अपने द्वारा किए जाने वाले समस्त कर्मों को भगवान की आराधना मानी जाय :--
*यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्*
(शिव मानस पूजा)
भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से कर्म करने वालों को ही *भगवत्कृपा* की अनुभूति होती है और *भगवत्कृपा* से संबर्धित मनुष्य अपने जीवन में कभी पराजित नहीं होता :--
*लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: !*
*येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनो हरि: !!*
(गरुड़पुराण)
जिनके हृदय में मंगल के भंडार श्रीहरि विराजमान है उनके लिए लाभ और जय की प्राप्ति निश्चित है ! उनकी पराजय किसी प्रकार नहीं हो सकती ! *भगवत्कृपा* की भांति भगवान के अस्तित्व की अनुभूति भी तभी ही हो सकती है जब मनुष्य अपने बौद्धिक तर्कजाल से मुक्त रहें ! दुर्निवार दु:ख या भय की स्थिति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि सहसा सुख या निर्भयता की स्थिति में आता है तो उस अवस्था में स्शयात्मा या नास्तिक होते हुए भी उसे मानने को बाध्य होना पड़ता है कि मनुष्य की परिधि से परे कोई एक लोकोत्तर शक्ति अवश्य है जो असीम और मंगलमय तत्वों का अनंत कोष है ! इस अखंड शक्ति को अब तक वैज्ञानिकों को भी बुद्धिगम्य नहीं हो सकी है ! हम ईश्वर या भगवान कहे या ना कहे , किंतु उस विशिष्ट सत्य की सर्वोत्कृष्टता को अर्थात स्थूल सांसारिक जीवन के अंतराल में प्रवाहित एक विराट शक्तिमयी अवस्था को स्वीकार करना ही पड़ेगा ! *भगवान और उनकी अहैतुकी कृपा* के प्रति विश्वास के निमित्त ह्रदय की सरलता पहली शर्त है और उसकी अनुभूति निराकांक्षा या निरपेक्षता की भावना से ही होती है ! *भगवत्कृपा* के प्रति विश्वास उसी मनुष्य में उत्पन्न होता है जिसके हृदय शिक्षा , संस्कार , आचार , उपदेश , शास्त्र और महापुरुषों के वचनों से शुद्ध हो गया है ! सरल हृदय में विश्वास उत्पन्न होने पर ही महाशक्तिरूपा *भगवत्कृपा* की सर्वोत्कृष्टता की अनुभूति होती है ! और यह अनुभूत ना केवल सांसारिक अभुयुदय अपितु मोक्ष की प्राप्ति का कारण बनती है ! इस प्रकार अनन्य एवं सर्वोत्कृष्ट महाशक्तिरूपा *भगवतकृपा* ही विश्व की समग्र सृष्टि प्रस्फुटित है ---- प्रस्पन्दित है !