*भगवत्कृपा* के कई रूप हैं ! कई रूपों में *भगवत्कृपा* हमको प्राप्त होती रहती है ! *भगवत्कृपा* अपने आप में विचित्र भी है यह मनुष्य को भ्रमित कर देती है ! साधना मार्ग के कुछ पथिक अभ्युदय अथवा भौतिक उत्कर्ष के उपादानों की उपलब्धि , सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति अथवा अभीष्ट लौकिक कार्यों की सिद्धि में ही *भगवत्कृपा* के प्रकाश का अनुभव करते हैं ! उसे ईश्वर की अनुकूलता मानकर वे भगवान की असीम अनुकंपा के विविध रूपों में कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं , और फिर दूने उत्साह से उच्चतर उपलब्धियों के लिए इष्टदेव की उपासना में लग जाते है , किंतु यदि दैवयोग से अभीष्ट वस्तु की प्राप्त नहीं हुई अथवा उनकी इच्छा के विरुद्ध परिणाम निकला तब या तो वे साधक साधना पथ से विमुख हो जाते हैं या प्रतिक्रिया स्वरूप उसके घोर विरोधी बन जाते हैं ! *इस प्रकार की स्थिति का विश्लेषण करने पर विदित होता है कि:-* ऐसा साधक अथवा भक्त (कहलाने वाला प्राणी) वास्तव में अपने को आराध्य का अनुगत न मानकर नियामक समझता है अतः उसे अपनी इच्छा के अनुकूल आचरण की आशा रखता है , अन्यथा होने पर वह अपना मानसिक संतुलन खो देता है ! इससे उसके द्वारा सिद्धांत रूप में स्वीकृत सेवक - स्वामी भाव व्यवहार में स्वामी - सेवक भाव में परिणत हो जाता है ! *गंभीरता पूर्वक विचार करने पर ही पता चलता है कि:-* अध्यात्म साधना को नष्ट करने वाली इस भावना के मूल में अर्थार्थीभाव अथवा सकाम उपासना है ! उस (मानव) की कर्म , ज्ञान अथवा भक्ति साधना का उद्देश्य वस्तुत: भवसागर से पार होना ना होकर वैषयिक सुखों को प्राप्त कर भव - मज्जन का संयोग लाभ प्राप्त करना है ! अतः उन की प्राप्ति में सहायक होने वाला ही कृपासिंधु , दयासागर तथा भक्तवत्सल है , तथा बाधा उपस्थित करने वाला अन्यायी , स्वेच्छाचारी और घोर शत्रु है ! *कबीरदास जी* ने ऐसे स्वार्थी साधकों को ही भक्ति मार्ग का कलंक लिखा है :--
*भक्ति बिगाड़ी कामिया , जिह्वा इंद्री स्वाद !*
*सूने घर को पाहुना , जनम गया बरबाद !!*
सम्यक दृष्टि संपन्न साधक अनुकूलता को *भगवत्कृपा* और प्रतिकूलता को प्रारब्ध भोग मान कर दोनों प्रकार की परिस्थितियों में प्रसन्न रहते हुए मनोगत अंधकार से मुक्त होते हैं ! संत बनादास जी लिखते हैं :--
*सुख होवे सो हरिकृपा , दुख कर्मन का भोग !*
*"बनादास" यों काटिए , मन मुरख का रोग !!*
किंतु यह उपदेश साधारण स्थिति के साधकों के लिए है ! विशेष उत्कर्ष प्राप्त के स्पृही साधकों को अपेक्षाकृत कठोर अनुशासन के भीतर से होकर गुजरना पड़ता है ! यह साधना का *"विपर्यय मार्ग"* अर्थात उल्टा रास्ता के नाम से जाना जाता है ! प्रत्येक स्थिति में *भगवत्कृपा* समझने वाला ही *भगवत्कृपा* का पात्र बन सकता है ! अपने मन के अनुसार फल चाहने वाला कभी भी *भगवत्कृपा* का पात्र नहीं बन सकता !