*भगवत्कृपा* से ही शरणागति प्राप्त होती है ,और जीव माया मुक्त भी हो जाता है ! *भगवत्कृपा* से ही साधन - भजन की प्रवृति सहज सुलभ होती है ! गीता में भजन करने की चार विधियां बताई गई है :--
*चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन !*
*आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ !!*
( श्रीमद्भगवद्गीता )
पुण्यात्मा जीव चार प्रकार से भगवान का भजन करते हैं ! *एक तो वह जो आर्त्त होकर* भगवान के सामने अपना दुख सुनाता है ! मेरा उद्धार करो प्रभु !मैं आपकी शरण में हूं ! यथा:--
*तू दयालु , दीन हौं तू दानि , हौं भिखारी !*
*हौं प्रसिद्ध पातकी , तू पाप पुञ्ज हारी !!*
(विनय पत्रिका)
*दूसरा वह जो जिज्ञासु होकर* भगवत्ततत्व , भगवान के रूप , गुण , लीला को जानना चाहता है ! *तीसरा अभावग्रस्त होकर भगवान से अभाव दूर करने की याचना करता है ! अर्थार्थी बनता है* अपनी अन्यान्य कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करता है ! *चौथा एकमेवाद्वितीयस्वरूप अपने इष्ट देव में लीन हो तत्व ज्ञान की प्राप्ति की साधना करता है* जो उसके भजन की चरम सीमा है ! प्राप्त तो अप्राप्त वस्तु को किया जाता है ! तो क्या *भगवत्कृपा* अप्राप्त है ! इसका उत्तर यह है कि भगवान और उनकी कृपा में अविनाभाव - संबंध है ! जहां भगवान है वहां उनकी कृपा है ! भगवान कण-कण में व्याप्त है ! अखिल विश्व ब्रम्हांड के भीतर और बाहर सर्वत्र हैं ! इस दृष्टि से उनकी कृपा भी सर्वत्र व्याप्त है ! भगवान और भागवती शक्ति , प्रकृति या माया सब *भगवत्कृपा* में है अवतार का कारण भी कृपा ही है :--
*यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !*
*अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् !!*
*परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् !*
*धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
भगवान कहते हैं कि :- हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात प्रकट करता हूं , क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए मैं युग युग में प्रगट होता हूं ! भगवान का मानव मात्र के कल्याण के लिए प्रत्येक युग में अवतार लेना ही *विशेष भगवत्कृपा* है ! भगवान की पालन-पोषण अथवा रक्षण रूप कृपा शक्ति ही अवतार धारण करती है और साधुओं का परित्राण करके धर्म की स्थापना करती है ! इतना ही नहीं दुष्टों का नाश करके अधर्म के अभ्युत्थान को रोकना भी कृपाशक्ति की ही लीला है अतः उत्पत्ति और बिनाश दोनों ही *भगवत्कृपा* की ही शक्ति से संभव है !