*भगवत्कृपा* सर्वव्यापक है कोई भी मर्यादा *भगवत्कृपा* को सीमित नहीं कर सकती ! *भगवत्कृपा* के अधिकारी पापी - पुण्यात्मा , राक्षस + देवता सभी है ! यथा:---
*सर्वाचारविवर्जिता: शठधियो व्रात्या जगद्वञ्चक: !*
*दम्भाहंकृतिमानपैशुनपरा: पापान्त्यजा निष्ठुरा: !!*
*ये चान्ये धनदारपुत्रनिरता: सर्वाधमास्ते$पि हि !*
*श्रीरामस्य पदारविन्दशरणा: शुद्धा भवन्ति द्विज: !!*
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*द्विजो वा राक्षसो वापि पापी वा धार्मिको$पि वा !*
*राम रामेति यो वक्ति स मुक्तो नात्र संशय: !!*
*अर्थात्:-* जो संपूर्ण आचार विचारों से रहित , शठ बुद्धि वाले , यज्ञोपवीत संस्कार ना होने से पतित , संसार के साथ द्वेष रखने वाले , दंभ , अहंकार , मान और दुष्टता के परायण , निष्ठुर , पापी , अंत्यज , दूसरों के धन , स्त्री और पुत्र में आसक्त और सभी दृष्टि से अधम हैं वे भी श्रीराम के चरणारविंद की शरण होते ही तुरंत शुद्ध हो जाते हैं ! ब्राह्मण हो या राक्षस , पापी हो या धर्मात्मा कोई भी क्यों ना हो जो राम राम का उच्चारण करता है वह नि:सन्देह मुक्त हो जाता है , *भगवत्कृपा बड़ी शक्तिशालिनी है* उसके समक्ष कुछ भी असम्भव नहीं है ! इसी व्यापकता का वर्णन करते हुए सूरदास जी लिखते हैं:---
*चरन कमल बंदौं हरिराइ !*
*जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै , अंधे को सब कछु दरसाइ !*
*बहिरौ सुनै गूंग पुनि बोलै , रंक चलै सिर छत्र धराइ !*
*सूरदास स्वामी करुनामय , बार बार बंदौं तिहिं पाइ !!*
(सूरसागर)
*भगवत्कृपा की व्यापकता* इतनी विस्तृत है कि द्वेष भाव से स्मरण करने वालों पर भी है अबाध रूप से बरसती है ! यथा:---
*खल मनुजाद द्विजामिष भोगी!*
*पावहिं गति जो जाचत जोगी !!*
*उमा राम मृदुचित करुनाकर !*
*बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर !!*
*देहिं परम गति सो जियँ जानी !*
*अस कृपाल को कहहु भवानी !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं , जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं , (परन्तु सहज में नहीं पाते) ! (शिवजी कहते हैं-) हे उमा ! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं ! (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही , स्मरण तो करते ही हैं ! यह *भगवत्कृपा की व्यापकता* ही है कि ऐसे लोगों को भी भगवान उत्तम गति प्रदान करते हैं !
*भगवत्कृपा* की इसी व्यापकता को लक्ष्य करके ईश्वर से उनका खण्डन करने वाले नास्तिकों के भी उद्धार की माँग सनातन धर्म में की गयी है :---
*इत्येवं श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्भूयो$भिराक्षालिते ,*
*येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशया: !*
*किंतु प्रस्तुतविप्रतीपविधयो$प्युच्चैर्भवश्चिनतका: ,*
*काले कारुणिक ! त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा: !!*
विद्वान हो या मूर्ख , धनी हो या निर्धन , पापी हो या धर्मात्मा , आस्तिक हो या नास्तिक , पुरुष हो या स्त्री , बालक हो या वृद्ध , पवित्र हो या अपवित्र , ब्राह्मण हो या चाण्डाल , गुणवान हो या गुणशून्य , कैसा भी हो सभी पर भगवत्कृपा सुधा का वर्षण होता है ! यही है *भगवत्कृपा की व्यापकता*