*भगवत्कृपा* में कर्म सहायक होते हैं ऐसा कहा जाता है ! इस पर विचार किया जाय कि कर्मादि किस प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्ति में सहायक होते हैं !
*भगवत्कृपा की प्राप्ति में साधन प्रमुख हैं तीन !*
*ज्ञान कर्म अरु भक्ति के योग कहें सुप्रवीन !!*
*चौथा साधन सरल है कहते सब विद्वान !*
*शरणागति से प्राप्त हो भगवत्कृपा महान !!*
(स्वरचित)
विद्वानों ने *भगवत्कृपा* या मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रमुख रूप से कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन किया है ! भक्ति का ही एक भेद प्रपत्ति या शरणागति है जिसमें साधक सर्वतोभाव से भगवच्चरणों में समर्पित हो जाता है और संपूर्ण भार उन्हीं पर छोड़ देता है ! इस प्रकार प्रपत्ति को चतुर्थ साधन के रूप में भी स्वीकार किया गया है ! इन चारों साधनों का सम्यक रूप से अनुष्ठान करने के लिए अनुभवी आचार्य (संत महापुरुषों) का मार्गदर्शन नितांत आवश्यक है ! उनके बिना उचित रीति से इनका आचरण संभव ना होने के कारण आचार्य (संत महापुरुषों) की महिमा बढ़ती गई और उन्हें भी भगवत्तुल्य ही समझा जाने लगा जिसके फलस्वरूप *आचार्याभियान* नामक स्वतंत्र साधन का प्रतिपादन भी विद्वानों ने किया !
*कोई ज्ञानयोग साधे कोई भक्तियोग साधे ,*
*कोई कर्म योग साधे प्रभु को रिझाने को !*
*कोई दीन हीन भाव अपने हृदय में धार ,*
*आतुर करे पुकार चरण शरण पाने को !!*
*कोई आचार्य अभियान का पथिक बने तो ,*
*कोई धाये तीरथ में दिव्य दर्श पाने को !*
*"अर्जुन" विचार मन इतना ही करो भाई ,*
*जपो राम राम कृपा राम जी की पाने को !!*
(स्वरचित)
इस प्रकार कर्म , ज्ञान , भक्ति , प्रपत्ति और आचार्याभियान यह पांच साधन माने जाने लगे !इनमें भी संप्रदायनिष्ठ जन अपनी परंपरा के अनुसार न्यूनातिरेक करते देखे जाते हैं ! कुछ लोग कर्मज्ञानोपकृत भक्ति , कुछ लोग कर्मभक्तिसहकृत ज्ञान और कुछ लोग ज्ञान - भक्ति युक्त निष्काम कर्म को भगवत्प्रीणन का साधन बतलाते हैं ! कर्म के भी दो भेद माने गए हैं :- सकाम कर्म , निष्काम कर्म ! प्रथमत: कर्म का तात्पर्य शास्त्रप्रतिपादित यज्ञादि के अनुष्ठान रूप सकाम कर्म से ही है , जो प्राय: त्रिवर्ग प्राप्ति या स्वर्ग प्राप्ति का साधन है , किंतु अपवर्ग प्राप्ति के लिए समस्त शुभाशुभ कर्मों और उनके फलों में आसक्ति का पूर्ण तरह त्याग अपेक्षित होने के कारण कर्म का तात्पर्य निष्काम कर्मयोग में होना चाहिए ! फलाभिसंधिरहित निष्काम कर्म द्वारा *भगवत्कृपा* और अपवर्ग की प्राप्ति होती है ! यह साधन जीव को *भगवत्कृपा* के सम्मुख करने में सर्वथा समर्थ हैं ! जितने साधन प्राप्त हैं उनकी रक्षा और जो अप्राप्त है उनकी प्राप्ति करा देना *भगवत्कृपा* का कार्य है तभी तो भगवान की *योगक्षेमं वहाम्यहम्* प्रतिज्ञा चरितार्थ होती है !