ईश्वरीय अनुग्रह *(भगवत्कृपा)* का रहस्य सदा अज्ञात ही रहेगा ! कब ? कहां ? कैसे ? और किस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ इसकी व्याख्या मानवीय बुद्धि के तर्कणा से संभव नहीं है *भगवत्कृपा* अपनी रहस्यमयी दृष्टि से कूड़े में छिपे रत्न की भांति अपात्र दिखने वाले व्यक्ति में भी पात्रता देख लेती है एवं उसके उद्धार के लिए अपने कार्य का समय है तथा पद्धति भी निश्चित कर लेती है !
*छोटा - बड़ा हो या दानव - देव हो ,*
*पापी हो चाहे कोई पुण्यात्मा !*
*पण्डित हो या हो मर्ख कोई ,*
*दानी हो कोई या हो पापात्मा !!*
*चेतन हो चाहे वह जड़ हो ,*
*कोई मलिन हो चाहे हो वह दिव्यात्मा !*
*"अर्जुन" भाव समान में देखि के ,*
*करते कृपा सब पर परमात्मा !!*
(स्वरचित)
छोटे -;बड़े , पापी - पुण्यात्मा , पंडित - मूर्ख सभी *भगवत्कृपा* के पात्र हो सकते हैं ! हुए हैं ! अहिल्या , पिंगला , गुह, कुचेल , जगाई-मधाई आदि इसके प्रसिद्ध उदाहरण है ! अनुग्रह का एक और पक्ष है दंड देने एवं सुधारने का ! ईश्वर धर्मों के व्यवस्थापक हैं , अधर्म के नियंत्रण एवं धर्म की रक्षा के लिए वे अपनी दंड रक्षा की शक्तियों का विनियोग करते हुए जीवो को उनके दुष्कर्म के अनुसार दंड देते हैं ! जिससे वे सुधर सके तथा पुनः पूर्णानंद की प्राप्ति स्वरूप उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील हो सके ! *दुर्गा सप्तशती के अनुसार* देवी भगवती असुरों का वध सदय हृदय से करती हैं जिससे ये अधम भी संग्राम में शस्त्रपूत मृत्यु का वरण कर उच्च गति को प्राप्त हो सके ! वह भी तो जगत्माता की संतान हैं ! उनके मंगल विधान की योजना भी तो जगदंबा को ही करनी है ! दंडात्मक हो या सुधारात्मक इस अनुग्रह का मृदु या क्रूर रूप चिकित्सक की औषधि या शल्य चिकित्सक की शल्यक्रिया की भांति मंगल भावना से युक्त होता है ! माता पिता अपने बच्चों को जब मृदु या कठोर दंड देते हैं तब उनके मन में संतान के हित की भावना ही होती है क्रूरता या बदला लेने की नहीं ! पृथ्वी पर जब दुष्कर्मकर्ताओं की संख्या अधिक हो जाती है एवं अधर्म की वृद्धि के कारण सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगता है तब पापों का संहार ,धर्मात्माओं की रक्षा एवं धर्म की स्थापना के लिए स्वयं भगवान अवतार ग्रहण करते हैं !यह अवतार कार्य भगवान का अनुग्रह ही होता है
*"नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप"*
(श्रीमद्भागवत)
वे मानव रूप में आकर पार्थिव जगत का बहुत सा ताप संताप अपने ऊपर ले लेते हैं यह उनकी परम कारुणिकता है ! पर वस्तुतः इस अवतार लीला में धर्म संरक्षण , दुष्ट उद्धार आदि तो गौण कार्य है मुख्य प्रयोजन तो भक्तों के बीच बिचरते हुए उनके प्रेम का आस्वादन करना ही है ! जो लोग उन्हें हृदय से प्यार देते हैं प्रभु उनके पास आए बिना नहीं रह सकते:-
*ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
भक्ति और अनुग्रह में परस्पर आदान-प्रदान का संबंध सदा बना रहता है यह संबंध भक्त और भगवान के प्रेम विनियम पर आधारित है !