एक साधक या साधारण मनुष्य के मस्तिष्क में एक प्रश्न प्राय: होता है कि *आखिर भगवत कृपा कैसे प्राप्त की जाय ?* बिना ज्ञान के मनुष्य अंधकार में पड़ा रहता है ! *भगवत्कृपा कैसे प्राप्त की जाय ?* इसके विषय में हमारे शास्त्र बताते हैं :- साधक का व्यक्तित्व योग मार्ग पर जैसे-जैसे संयमित हो जाता है वैसे ही वैसे *भगवतकृपा* विभिन्न रूप ग्रहण कर दर्शन देने लगती है ! *भगवत्कृपा या ईश्वर की कृपा* वैसे तो हमें विभिन्न रूपों में प्राप्त होती है परंतु मुख्यता है इसके चार रूप बताए गए हैं :--
*आत्मकृपा सद्गुरुकृपा , शास्त्रकृपा अभिराम !*
*चौथी है भगवत्कृपा जहां मिले विश्राम !!*
*जैसे पर्वत से निकल नदी करें विस्तार !!*
*वैसे कृपा समुद्र में मन हो एकाकार !!*
(स्वरचित)
कृपा के सामान्यता चार रूप होते हैं *(१)* आत्मकृपा *(२)* गुरुकृपा *(३)* शास्त्रकृपा और *(४)* भगवत्कृपा या ईश्वरकृपा ! जैसे एक नदी पहाड़ से निकलकर चौड़ी होती हुई आगे बढ़ती और मैदान में बहती हुई समुद्र में गिरती है , उसी प्रकार पुरुषार्थ का लघु प्रयत्न बढ़ते हुए विस्तार को प्राप्त करते हुए कृपा रूप समुद्र में एकाकार हो जाता है ! *अब हम चर्चा करेंगे कृपा के चारों स्वरूपों की*
*(१) आत्मा कृपा :-* जब जीवात्मा स्वयं मानव शरीर में निजी स्वरूप का अनुभव प्राप्त करने की उत्कंठा को विकसित करता है *तब उसे आत्माकृपा करते हैं !* अपने आत्मा द्वारा प्रेरित हुए बिना मनुष्य योग मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता तथापि यह जान लेना आवश्यक है कि अतीत काल के शुभ कर्म मनुष्य को इस योग्य बनाते हैं कि वह अपनी आंतरिक हृदयग्राह्यिता तथा रुचि को आत्मनुभव की प्राप्ति में विकसित करें !
*(२) गुरुकृपा:--* जब साधक साधना के मार्ग में चलने के लिए अधिकाधिक गंभीर और सचेत हो जाता है तब वह आध्यात्मिक मार्गदर्शक की खोज में लगता है ! उसकी आध्यात्म मार्ग पर चलने की उत्कंठा उसे एक अज्ञात शक्ति की सहायता से एक आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक गुरु की प्राप्ति करा देता है ! उन गुरु की आज्ञा अनुसार चलने पर उनकी कृपा से साधक की परमार्थिक अड़चनें चमत्कारिक ढंग से दूर हो जाती है ! तब बिना अधिक प्रयास किए स्वभावगत दोष दूर हो जाते हैं और जब तृष्णा से विरक्ति बढ़ने लगती है और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मानसिक एकाग्रता तथा आकांक्षा की वृद्धि होती है *तब हम समझने लगते हैं कि गुरुकृपा हमारे भीतर कार्य करने लगी है !*
*(३) शास्त्रकृपा :--* गुरुकृपा का पर्यवसान शास्त्रकृपा में होता है ! जब साधक की अंतर्दृष्टि उपनिषद , गीता योगवशिष्ठ तथा दूसरे योग संबंधी ग्रंथों के अध्ययन से विकसित होती है *तब जाना चाहिए कि उसको शास्त्रकृपा प्राप्त हो रही है* उसकी विवेकशील दृष्टि से शास्त्र अपने रहस्यमय कोष को नहीं छुपाते ! जो लोग शास्त्रकृपा से समृद्ध नहीं है वे आध्यात्मिक उपदेशों से प्रेरणा प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते ! वह इंद्रियों को उतने उत्तेजित करने वाली नाना प्रकार की पुस्तकें पढ़ कर अपना मन बहलाव करते हैं और जीवन में क्षणिक उन्नति के लिए निरर्थक अभिलाषा को महत्व देकर मनोविनोद करते हैं ! साधक के लिए रहस्यमयी धर्म ग्रंथों की गंगा प्रवाहित हो रही है वह क्यों सड़े पानी के मटमैले कुंड में डुबकी लगाकर अपने आपको गंदा करेगा ?
*(४) भगवत्कृपा या ईश्वरकृपा :-* जब साधक का चित्त संसार के विषयों से विरक्त हो जाता है और निरंतर भगवान की ओर प्रवाहित होने लगता है तब उसको *भगवत्कृपा* की पूर्णता की अभिव्यक्ति समझना चाहिए ! *भगवत्कृपा* द्वारा उपासक सदा भगवान की स्मृति में तल्लीन रहता है ! ज्ञानयोगी सतत् *अहम् ब्रह्मास्मि* रूपा भावना के उत्कट निदिध्यासन की साधना करता है ! राजयोगी गंभीर समाधि में स्थित होने की साधना करता है और कर्मयोगी सृष्टि के माध्यम से भगवान की सेवा करता है ! *भगवत्कृपा* की दृष्टि से सारा संसार आप्लावित हो रहा है *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम *आत्मकृपा* होना परम आवश्यक है अगर कोई यह चाहे कि हम को सीधे *भगवत्कृपा* प्राप्त हो जाए तो यह असंभव है जिस प्रकार किसी मकान की छत पर जाने के लिए एक-एक पायदान चढ़ना पड़ता है उसी प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए प्रथम पायदान अर्थात *आत्माकृपा* प्राप्त करना ही होगा ! जब *आत्माकृपा* होती है तो सद्गुरु की ओर खींचावहोता है और *सद्गुरु की कृपा* जब हो जाती है तो शास्त्रों में रुचि बढ़ती है ! *शास्त्रकृपा* होने से ही *भगवत्कृपा* की प्राप्ति हो सकती हैं ! यह *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सुगम मार्ग है !