*भगवान की कृपा* कहने से सामान्यतः यही समझ में आता है कि भगवान अलग है और उनकी कृपा कोई अन्य वस्तु या शक्ति है ! पर बात वस्तुतः ऐसी नहीं है ! जैसे शीतल चांदनी और चंद्र दो कहलाने पर भी एक ही है इसी प्रकार भगवान और *भगवत्कृपा* अभिन्न है ! दोनों स्वरूपत: एक है ! जो लोग अद्वैतवादी हैं उनके मत से ब्रह्म ही *एकमेवा द्वितीय* है ! ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है !
*नेह नानास्ति किंचन*
(कठोपनिषद)
यह जगत और जागतिक व्यापार को ब्रह्म की शक्तिविशेष --- प्रकृति अथवा माया का कार्य मानते हैं ! इसी शक्तिविशेष के द्वारा वह :---
*एकमेवाद्वितीयम्*
(छान्दोपनिषद)
ब्रह्म एक से अनेक होता है ! चराचरात्मक अनंत विश्व व्यापार में परिणित हो जाता है ! किसलिए ???:-
*लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्*
(ब्रह्म सूत्र)
आनंद के लिए -- केवल लीला के लिए ! जैसे :- लोक में लीला का आनंद लेने के लिए लोग अभिनय करते हैं ! कुछ और , बन जाते हैं कुछ और ! गोस्वामी जी कहते हैं :--
*ईश्वर अंश जीव अविनासी !*
*चेतन अमल सहज सुखरासी !!*
*सो मायाबस भयउ गोसांईं !*
*बंध्यो कीर मर्कट की नाईं !!*
(मानस)
ब्रह्म एक से अनेक होकर लीला अभिनय करता है ! भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं :---
*दैवी ह्यैषा गुणमयी मम माया दुरत्यया !*
*मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं :- मेरी इस त्रिगुणमयी देवी माया का पार पाना बहुत कठिन है ! जो मेरे शरणपन्न होते हैं वहीं इस माया को पार कर सकते हैं ! *प्रश्न है ?* माया के वशीभूत हुआ जीव क्या भगवान के शरण|पन्न हो सकता है ? माया से मुक्त हुए बिना भगवच्छरणागति कैसे प्राप्त होगी ? यह अन्योन्याश्रय जाल जैसा लगता है , परंतु इसका भी उपाय एक ही है और वह है *भगवत्कृपा*