यह अकाट्य है कि *सनातन धर्म पर विशेष भगवत्कृपा है* सनातन के धर्मग्रन्थ पग पग पर मनुष्य को *भगवत्कृपा* प्राप्ति के सरल से सरल साधन उपलब्ध कराते रहे हैं ! श्रीमद्भागवत पर *विशेष भगवत्कृपा* के दर्शन करने के बाद यदि हम निचार करें तो सनातन के प्राय: सभी ग्रन्थ *भगवत्कृपा* से ओतप्रोत हैं ! ऐसे में यदि *श्रीमद्भगवद्गीता* की बात न की जाय तो यह श्रृंखला ही अधूरी रह जायेगी ! साक्षात् परमात्मा के मुखारविन्द से निकले ज्ञान को *विशेष भगवत्कृपा* मानकर ग्रहण करने से मनुष्य *भगवत्कृपा का पात्र* बनकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ! आईये *कृपामयी श्रीमद्भगवद्गीता* का दर्शन करने का प्रयास करते हैं !
जीवात्मा परमात्मा का अंश है ! इसने परमात्मा से विमुख होकर प्रकृति और उसके कार्य त्रिगुणात्मक संसार से संबंध मान लिया है ! इसी कारण उसे (सब पर सामान्य रीत से बरसती हुई ) *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं हो पाता जब तक मनुष्य की सांसारिक पदार्थों में संग्रह और सुख वृद्धि रहेगी तब तक भगवान से विमुख होने के कारण उसमें *भगवत्कृपा दर्शन* का सामर्थ्य कदापि नहीं आ सकता , जबकि भगवान सर्वत्र व्याप्त है उसी प्रकार *भगवत्कृपा- भी सर्वत्र परिपूर्ण है , निरंतर है , सब प्राणियों पर समान रूप से है !
*छल छद्म अनेक भरे मन में ,*
*मद मत्सर मोह में ध्यान लगावै !*
*माया के विकार नचाय रहे ,*
*नाचइ मानुष बहुतै सुख पावै !!*
*संसार के बन्धन बाँधि रहेव ,*
*हरि से तनिकेउ नहिं नेह लगावै !*
*"अर्जुन" नर मूढ़ गंवार सबइ ,*
*भगवन्त कृपा केहू नहिं पावै !!*
(स्वरचित)
जीव भगवान के सम्मुख हो जाता है तब उसके समस्त बंधन कर जाते हैं और आगे की सारी जिम्मेदारी स्वयं भगवान की हो जाती है ! *यही सम्मुखता कृपामय ग्रंथ श्रीमद्भागवद्गीता के प्राकट्य का कारण है !* अर्जुन द्वारा एक अक्षौहिणी शस्त्र अस्त्र से सुसज्जित सेना को छोड़ अकेले भगवान श्री कृष्ण को स्वीकार किया जाना उनकी भगवत्सम्मुखता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है ! जिस समय दुर्योधन और अर्जुन दोनों भगवान श्री कृष्ण से सहायता मांगने पहुंचे उस समय दुर्योधन ने भगवान की नारायणी सेना मांग ली ! परंतु अर्जुन ने कहा :- भगवन ! हमें सिर्फ आपसे काम है ! मेरा काम शस्त्रों से नहीं चलना है , क्योंकि मेरे मन में बहुत दिनों से इच्छा थी कि आप मेरे सारथी बने मेरे रथ के घोड़े आप ही हाँकें ! मेरे जीवन की बागडोर आपके हाथों में हो ! अर्जुन का निवेदन ही *भगवत्कृपा* को स्वीकार करना है ! दुर्योधन ने वैभव स्वीकार किया वह भगवान से विमुख हो गया और अर्जुन ने स्वयं को ही भगवान के हाथों सौंप दिया इसलिए भगवान के सम्मुख होकर *महती भगवत्कृपा* का प्रिय पात्र बन गया ! श्रीमद्भागवद्गीता का आरम्भ *अथ* से होता है :-- *अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा* तथा समापन *इति* के साथ होता है :- *इत्यहं वासुदेवस्य* श्रीमद्भागवत गीता श्रीगणेश *भगवान की असीम कृपा* के कारण ही हुआ है ! महाभारत युद्धारम्भ से पूर्व व्यास जी ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र से कहा कि युद्ध का होना अवश्यंभावी है यदि तुम यहां बैठे-बैठे ही संग्राम देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान करूं ! परंतु धृतराष्ट्र ने दिव्य नेत्र लेना स्वीकार नहीं किया , और संजय को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ ! संजय ने भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य संवाद को अक्षरश: सुनाया ! *श्रीमद्भगवद्गीता श्रीभगवान का साक्षात अनुग्रह है* इसमें दो मत नहीं हो सकते ! जब *भगवत्कृपा* होनी होती है तब भगवान स्वयं भक्त से अपने मन की बात कहलवा लेते हैं ! भगवान ने अर्जुन को गीता का दिव्य ज्ञान दिया ! यह भगवान की अर्जुन पर *विशेष भगवत्कृपा* ही थी !