*सनातन धर्म और भगवत्कृपा* के संबंध पर यदि विचार किया जाय तो जो चिंतन *सनातन धर्म* में प्राप्त होता है वह अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता ! जो *भगवत्कृपा* सनातनधर्मावलंबियों को प्राप्त है वह किसी अन्य को नहीं प्राप्त है | यह *भगवत्कृपा* ही है कि यह जीव वेदोक्त पंचाग्नि विद्या के अनुसार सर्वप्रथम मेघ के गर्भ में जलरूप से प्रविष्ट होता है ! वहां से बरसकर पृथ्वी के गर्भ से अन्न-तृणादि के रूप में प्रकट होता है , तदनंतर भोक्ता प्राणी के वैश्वानर नामक अग्नि गर्भ में रहकर रजवीर्य का रूप धारण करता है ! अंत में वह जीव धारियों में माता के गर्भ में प्रविष्ट होकर पांचवी आहुति में शरीर धारी बन कर जन्म लेता है ! इन पांचों आहुतियों में एकमात्र *भगवत्कृपा* ही उसे जीवित और स्थान्तरित करती है ! प्रधानतया माता के गर्भ में जिस जठराग्नि में भक्षित भोजन आदि कठिन पदार्थ भी कुछ ही घंटों में परिपक्व हो जाते हैं उसी अग्निकुंड में यह जीव (एक वीर्यबिंदु के सत्रह लक्ष कीटों में से ) एक कीट रूप से परिवर्तित और परिवर्द्धित होता हुआ अन्यून नौ - दस मास और हस्ती आदि योनियों में तो चार वर्ष तक जीवित रहता है ! यह *भगवत्कृपा* का प्रत्यक्ष एवं चमत्कारी निदर्शन है ! गर्भगत बालक के पोषणार्थ माता की और बालक की नाभि से संबंधित एक नाल (गर्भस्थ) शिशु को माता द्वारा भक्षित भोजन का सूक्ष्मरस निरंतर पहुंचाती है ! जो भगवान बिना पेट और बिना मुख वाले मांस पिंडभूत गर्भगत जीव को भी *अपने कृपामय विधान से* पालित करते हैं वह कितने कृपालु हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है !
*कृुपा लुटाते हैं सदा भगवन करुणासींव !*
*भगवत्कृपा से पलत है मातु उदर में जीव !!*
स्वरचित
*विचार कीजिए* हमें अपने घरों में किसी भी वस्तु के अभाव की चिंता एक-दो दिन पूर्व होती है परंतु भगवान को गर्भगत बालक के जन्म लेने पर उसकी नाल के उच्छिन्न हो जाने से खानपान की क्या व्यवस्था होनी है इसकी चिंता बालक के जन्म से चार-पांच महीने पहले ही होने लगती है इसीलिए गर्भवती माता के स्तनों में दूध का निर्माण प्रारंभ हो जाता है ! भगवान की यह *अहैतुकी असामान्य कृपा* यों तो प्राणिमात्र पर होती है इसमें कुछ संदेह नहीं ! परंतु :--
*भूतानाम् प्राणिन: श्रेष्ठा:*
के आधार पर भगवान की सर्वाधिक *कृपा के पात्र* भागवदाज्ञाभूत बेदादिशास्त्रानुमोदित *सनातन धर्म* के सिद्धांतों पर प्राणपण से चलने वाले ज्ञानी मनुष्य ही है ! श्रीमद्भागवत गीता में भगवान स्वयं घोषणा करते हैं :--
*ज्ञानी त्वात्मैव में मतम्*
(श्रीमद्भागवत गीता)
*अर्थात:-* ज्ञानी तो मेरा अपना आत्मा ही है *वस्तुतः सनातन धर्म भगवान का अपना ही स्वरूप है* अत: उस पर विशेष *भगवत्कृपा* का होना स्वाभाविक ही है ! *सनातन धर्म पर श्रीमन्नारायण की अनंत विशेष कृपा है* ! जैसी *भगवत्कृपा* सनातन धर्म पर देखने को मिलती है वैसी अन्य कहीं देखने को शायद ही मिले |