भगवान की सतत प्रवाहशीला सहज कृपा सर्वकालिक है ! ना वह कालसापेक्ष है और ना साधनों पर ही निर्भर करती है ! वह *अहैतुकी* है ! अतएव अकारण ही सब पर बरसती रहती है ! *भगवत्कृपा* देश , काल , वस्तु और व्यक्ति से परे भी है और उन सब में अनुस्यूत भी है ! यथा:--
*मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय !*
*मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* हे धनञ्जय ! मेरे बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है ! जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई होती हैं , ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओत-प्रोत है ! वह रूपरहिता रहकर भी सर्व रूपों में प्रकाशित होती है ! वह अपने मूलाधार में एक रस है ! *आशय यह है कि कृपा और कृपालु दो भिन्न तत्व नहीं है !* यथा :---
*गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न !*
(मानस)
*अर्थात्:-* जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं , परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं ! हम कृपालु से इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति आदि की जो कुछ भी अभिलाषा रखते हैं वह हमें *अभिलाषिणी नामक भगवत्कृपा* से ही प्राप्त होती है इस प्रकार जब जहां जो कृपालु का स्वरूप है तब वहां वही कृपा का भी स्वरूप है *वास्तव में भगवान की मूर्ति ही भगवत्कृपा का रूप है* भगवान के विग्रह से भिन्न *भगवत्कृपा* का कोई दृश्य रूप नहीं है ! अतः सभी भगवद्विभूतियों में अरूपिणी *भगवत्कृपा* का स्वरूप झलकता है क्योंकि वह स्वयं भगवान के ही तैजस अंश से उत्पन्न है ! यथा :--
*यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा !*
*तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* जो-जो भी विभूति युक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त , कान्ति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु है, उस- उसको तू मेरे तेज़ के अंश की ही अभिव्यक्ति जान !अतएव घोर तमसाछन्न विश्व प्रपंच में भी हमारे अंतर्बाह्य नेत्रों के भीतर से जो सूर्य ज्योति एवं आशा का प्रकाश बेरोकटोक जाता हुआ प्रतीत होता है वह भगवान की कृपा कीलही मंगलमयी ज्योति है ! वह जीव मात्र को सतत प्राप्त होती रहती है इसे पाना नहीं होता केवल पहचानना पड़ता है ! यह सर्वकालिक है अतः इसकी प्राप्ति के लिए किसी विशेष समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती ! सतत प्रवाहशीला होने से जीव मात्र को इसका सुखद शीतल स्पर्श प्राप्त होता रहता है ! यह कृपा विभिन्न रूपों में मानवमात्र को सुख पहुँचाती रहती है ! यथा :--
*कृपा के अनेकों रूप सतत प्रवाहशील ,*
*आँखें हमारी पहचान नहीं पाती हैं !*
*कृपा अखंड जननी उज्जीवनी बनि ,*
*कभी प्रबोधिनी - प्रपञ्चिनी बन जाती है !!*
*शिक्षाप्रदायिनी प्रणालिनी अभिलाक्षिणी ,*
*अभिव्यञ्जना आदि रूप दरसाती है !*
*जहाँ जैसी आवश्यकता वैसा ही स्वरूप धारि,*
*जीवन में सतत् कृपा बरसाती है !!*
(स्वरचित)
इस प्रकार यद्यपि *त्रिकालाबाधित कृपा* तत्वत: एकरस , अखंड एवं अविनाशिनी है तथापि जीव मात्र के कल्याण के लिए तथा उसके प्रेय और श्रेय की समस्त सुविधाएं जुटाने हेतु वह स्वयं कभी *जननी* कभी *उज्जीवनी* कभी *प्रबोधिनी* कभी *प्रपञ्चनी* कभी *शिक्षाप्रदायनी* कभी *प्रणयिनी* कभी *अभिलाषिणी* कभी *प्रापणी* एवं कभी *अभिव्यंजनी* आदि अनेक रूपों को ग्रहण करती रहती है ! जिनसे जीवमात्र को ऐहिक और पारलौकिक श्रेय प्राप्त करने के अवसर एवं यथा योग्य सुविधाएं प्राप्त होती रहती है !