इस सृष्टि के कण-कण में भगवान व्याप्त हैं ! कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहां पर भगवान की व्यापकता ना हो ! गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं :--
*हरि व्यापक सर्वत्र समाना !*
*प्रेम तें प्रकट होइं मैं जाना !!*
(मानस)
जिस प्रकार भगवान कण-कण में व्याप्त है उसी प्रकार *भगवत्कृपा भी व्यापक है* सकल सृष्टि पर *भगवत्कृपा* अनादिकाल से बरसती चली आ रही है ! *थोड़ा विचार कर लिया जाय कि :- व्यापकता क्या है ???* इसके विषय में हमारे शास्त्र बताते हैं अविनाभाव , अव्यभिचरित सम्बन्ध या नित्य साहचर्य को *व्याप्ति कहते हैं* अथवा हेतु और उसके व्यापक साध्य का जो समानाधिकरण्य है *उसे व्याप्ति कहा जाता है* जिसमें यह व्याप्ति रहती है वह व्याप्य है और जिसकी यह व्याप्ति होती है *वह व्यापक कहलाता है* व्याप्य कभी भी व्यापक से वाह्य नहीं रह सकता ! यथा:---
*अनधिकदेशकालनियमं व्याप्यम् ! अन्यूनदेशकालवृत्तिर्व्यापकम् !!*
इस प्रकार स्वरूपत: सर्व देशकाल संबंध को व्यापकत्व कहा जाता है ! जैसे:--
*सर्वदेशसम्बद्धत्वं हि व्यापकत्वम्*
विशिष्टाद्वैतदर्शन में भगवान के व्यापकत्त्व के संबंध में कहा गया है कि त्याज्य गुणों के विरोधी जो उपादेय सद्गुण हैं उनका जो आकर हो , नित्य हो तथा स्व से भिन्न निखिल वस्तु में रहता हो *उसे व्यापक कहते हैं* यथा:--
*हेयप्रयत्नीकगुणगणाकरत्वे नित्यत्वे च सति स्वेतरनिखिलवस्तुमात्रवृत्तित्वं व्यापकत्वम्*
विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान को व्याप्त , व्यापी , विष्णु , अनंत बिभु आदि कहा गया है ! जिसकी व्याख्या में आचार्य शंकर जी लिखते हैं :---
*कारणत्वेन् सर्वकार्याणां व्यापनाद् व्याप्त:*
(विष्णुसहस्रनाम शं०भा०)
*अर्थात :-* कारण रूप से सब कार्यों को प्राप्त करने के कारण वह *व्याप्त* है
*आकाशवत् सर्वगतत्वाद् व्यापी "आकाशवत् सर्वगतश्च नित्य:" इति श्रुते:, कारणत्वेन् सर्वकार्याणां व्यापनाद् वा व्यापी !!*
(विष्णुसहस्रनाम शं०भा०)
*अर्थात:-* आकाश के समान सर्वव्यापी होने से *व्यापी* है ! श्रुति कहती है :-आकाश के समान सर्वगत और नित्य है इसलिए समस्त कार्यों में कारण रूप से व्याप्त होने के कारण *व्यापी* है
*व्याप्ता मे रोदसी पार्थ क्रान्तिश्चाभ्यधिका मम् !*
*क्रमणाव्याप्यहं पार्थ विष्णुरित्यभिसंज्ञित: !!*
(महाभारत/शान्तिपर्व)
*अर्थात:-* हे पार्थ ! पृथ्वी और आकाश मुझ में व्याप्त है तथा मेरा विस्तार भी बहुत है *इस विस्तार के कारण ही मैं विष्णु कहलाता हूं*
*नित्यत्वाद् सर्वात्मत्वाद् देशकालपरिच्छेदाभावादनन्त:*
(विष्णुसहस्रनाम शं०भा०)
*अर्थात:-* नित्य सर्वगत और देशकाल परिच्छेद से रहित होने के कारण भगवान *अनंत* हैं
*सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म*
(तै०उ०)
ब्रह्म सत्य , ज्ञान और अनन्त है
*गन्धर्वाप्सरस: सिद्धा: किंनरोरगचारणा: !*
*नान्तं गुणानां गच्छन्ति तेनानन्तो$यमव्यय: !!*
(विष्णुपुराण)
,*अर्थात्:-* इनके गुणों का अंत गंधर्व , अप्सरा , सिद्ध , किन्नर , नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते इसलिए यह अविनाशी देव *अनन्त* कहलाते हैं
*सर्वत्र वर्तमानत्वात् त्रयाणां लोकानांप्रभुत्वाद् वा विभु:*
(विष्णुसहस्रनाम शं०भा०)
*अर्थात:-* सर्वत्र वर्तमान होने तथा तीनों लोकों के प्रभु होने के कारण *विभु* हैं ! इस प्रकार भगवान जैसे स्वरूपत: सर्व व्यापक है उसी प्रकार *भगवत्कृपा* भी सर्व व्यापक है ! देश और काल का व्यवधान *भगवत्कृपा* की व्यापकता का खंडन नहीं कर सकता !