विकास की कसौटी यही है की प्रेरणा से हम कहां तक लाभ उठा सकते हैं और हमारी चेतना से इसका कहां तक सायुज्य स्थापित हो सकता है ! अपनी पसंद और *भगवत्कृपा* इन दोनों में से किसी एक को चुनने में हम सदैव स्वाधीन हैं ! अपनी पसंद का चुनाव करते ही हमें पूर्व के भागों में वर्णित सीमाओं की दासता स्वीकार करनी पड़ती है फिर भी अहंकार वशीभूत होकर मनुष्य कृपा पद को स्वीकार नहीं कर पाता !
*वशीभूत हो अहंकार के ,*
*कृपातत्त्व को जान न पाते !*
*अपनी क्षमता अपनी सीमा ,*
*को हरगिज पहचान न पाते !!*
*भगवत्कृपा निरन्तर हमको ,*
*है विकास का मार्ग दिखाती !*
*भ्रमित हुई मानव प्रवृत्ति ,*
*पतन मार्ग नर को ले जाती !!*
(स्वरचित)
उसे अपनी सीमाओं की दासता का आभास भी नहीं होता ! इसी अवस्था में वह कृपा के वास्तविक हेतु को समझने में असमर्थ रहता है ! पर *भगवत्कृपा* की मूल शक्ति तब भी उस अधिष्ठान और विकास के आरोहण का मार्ग दिखाती रहती है ! प्रश्न उठता है कि भगवत्कृपा का स्रोत क्या है ? सृष्टि के आदि कारणों का सूत्र इस प्रकार ग्रहण किया जा सकता है कि :--
*अपने आनन्द हेतु निज स्वादन के लिए ,*
*चित्तशक्ति क्रीड़ा हेतु नाथ सृष्टि करते हैं !*
*आत्मसत् आत्मचित्त आत्म आनन्द हेतु ,*
*नाथ जड़ चेतन पर कृपा वृष्टि करते हैं !!*
*जड़ प्राण मन:कृपा जिनकी आकर्षण शक्ति ,*
*सृष्टि निर्माण हेतु दया दृष्टि करते हैं !*
*लीला के विस्तार हेतु माया शक्ति लेके नाथ ,*
*सकल प्राणिमात्र के हृदय में तुष्टि करते हैं !!*
(स्वरचित)
भगवान अपने आनंद के निजास्वादन के लिए अपनी चित्तशक्ति की क्रीड़ा के माध्यम से अपने ही स्वरूप में प्रकट होकर सृष्टि करते हैं ! यह अनंत की शांत (ससीम) अभिव्यक्ति है ! इस प्रक्रिया में आत्म-सत् , आत्म-चित् , आत्म-आनंद सृष्टि के ऊर्ध्वभाग का निर्माण करते हैं ! इस अर्द्धांश - जड़ , प्राण और मन:कृपा ही इनके परम आकर्षण की शक्ति है ! सृष्टि के निर्माण के लिए जहां परमेश्वर और आदिशक्ति के माध्यम से लीला का विस्तार होता है वही कृपा की प्रमुख स्रोतस्वनी प्रवाहित होती है ! आदि सृष्टि के मूल में स्थित होने के कारण कृपा की शक्ति कारणाश्रिता नहीं अपितु कारणस्वरूपा है ! यह अपनी लीला विस्तार के लिए किसी अन्य शक्ति पर निर्भर नहीं करती क्योंकि शक्ति का मूल स्वरूप कृपा के माध्यम से ही प्रकाशमान् हो उठता है ! इसी कारण कृपा अर्थनिरपेक्ष होती है , निरर्थक नहीं !
*कृपा भगवान की जगाती पुरुषत्व नित्य ,*
*अपनी कृपा का माध्यम नर को बनाती है !*
*भगवत्कृपा की ओर उन्मुख कराती उसे ,*
*कृपाशक्ति मानव के हृदय में जगाती है !!*
*मुक्त कराती वासनाओं कामनाओं से भी ,*
*काम क्रोध लोभ मोह हिय से भगाती है !*
*कृपा के धाम कृपासिन्धु जी की कृपाशक्ति ,*
*"अर्जुन" पुरुष को महापुरुष बनाती है !!*
(स्वरचित)
सर्वदा जीवो पर बरसती रहने तथा उन्हें मुक्त करने और मूल स्वरूप को पहचानने में सहायिका होने पर भी यह मूलतः पुरुष के पुरुषत्व को जगा कर उसके माध्यम से ही कार्य करती है तथा दिव्यता की ओर उन्मुख होने और उसका वरण करने की शक्ति प्रदान करती है ! कृपा को द्रवित करने वाली प्रार्थना की शक्ति एवं श्रद्धा सच्चाई और समर्पण की त्रिवेणी से ही महाशक्ति (परमसत्ता) के चरण पखारे जा सकते हैं ! तभी वासनाओं से मुक्त होने की तथा पवित्रता , शांति और सत्य को पाने की अभीप्सा *भागवती कृपा* के अवतरण का पथ प्रशस्त करती है ! इस अवतरण के बाद ही प्राप्त होता है विशुद्ध भागवत प्रेम एवं निजस्वरूपा अचला भक्ति ! *इसी कारण औढरदानी भगवान शिव की शक्ति माहेश्वरी को "कृपा" तथा भगवान श्री कृष्ण की शक्ति श्री राधा को प्रेम स्वरूपा वर्णित किया गया है !*
*भागवती कृपा* के इस रूप का साक्षात्कार हमारी आंतरिक सुरक्षा तथा विभिन्न स्तरों से अभिव्यक्त प्रार्थनाओं से भी आगे देखने की शक्ति और दृष्टि प्रदान करता है ! कृपा के व्यष्टिभावापन्न लक्षणों के अतिरिक्त भी उसका एक महान स्वरूप है !
*भगवद आश्रय तब मिले जब हो श्रद्धा विश्वास !*
*यही समर्पण शक्ति ही ले जाये प्रभु पास !!*
(स्वरचित)
विश्वास और श्रद्धा का सम्बल साथ हो तो मानव अतिशीघ्र भागवदाश्रय का आकांक्षी और अधिकारी हो सकता है ! फिर यह आश्रय का भाव ही हमें समर्पण तक पहुंचा देता है ! यहां कृपा लाभ के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की अनुभूति नहीं होती ! कृपा लाभ का आनंद कृतज्ञता में है ! स्रष्टा की सृष्टि को शुद्ध करने के (अहं) भाव से मुक्ति पाकर हम यह मानें कि प्रत्येक स्थिति में भगवदनुग्रह से परिपूर्ण और भगवन्निर्दिष्ट है ! शक्ति और श्रद्धा दोनों का परम लक्ष्य समर्पण के माध्यम से कृपा लाभ ही है ! कृपा तर्कबुद्धि के परे का तत्व है ! *भगवत्कृपा* अमृत स्वरूपिणी करुणामयी परमात्मासत्ता की सर्वव्यापिनी अनुग्रह - मूर्ति है !