प्राय: सभी पौरस्त्य और पाश्चात्य ईश्वरवादियों में धर्मों में कृपा के हस्तक्षेप एवं कार्य को ही आध्यात्मिक जीवन की सफलता - सिद्धि का सर्वोच्च साधन माना है , किंतु लोगों की धारणा है कि यह हस्तक्षेप रहस्यपूर्ण तथा अपूर्व है !
*जीव जगत में होत जब , व्याकुल महा अधीर !*
*कृपा पहुँचती है तुरत , ज्यों अर्जुन के तीर !!*
*पाप पुण्य का तनिक भी , करती नहीं विचार !*
*जीवमात्र का कृपा पर , है समान अधिकार !!*
(स्वरचित)
कृपा जहां कहीं अवतरित होना चाहती है वायु की तरह पहुंच जाती है ! इस पर पुण्यात्माओं का अधिकार नहीं जम सकता , अतः निकृष्ट पापी को भी इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं , क्योंकि यह गिरे और भटके लोगों के भग्न हृदयों को प्रेम के उपचार से उन्हें स्वस्थ कर देती है ! अहंकारी और मदमत्त लोगों की ओर यह विशेष दृष्टि डालती है , सतत उनके कल्याण का साधन जुटाती है !
*दुख का कारण अभिमान ही है ,*
*मति मानव की हर लेती है !*
*दुखरूप विपत्ति की चोट मारि ,*
*मद चूर चूर कर देती है !!*
*बन शीतल वायु कृपा प्रभु की ,*
*जीवन की उमस हर लेती है !*
*"अर्जुन" जब गहन तमस घेरे ,*
*तब चमक पूर्ण भर देती है !!*
(स्वरचित)
विभिन्न विपत्तिरूप थपेड़ों द्वारा उनके अहंकार को चूर-चूर करती रहती है ! यह शीतकाल में सुकोमल ओस-बिंदु की तरह और गर्मी में शीतल दक्षिणी वायु अथवा श्मशान - अंधकार के बीच प्रकाश की चमक की तरह आती है ! कभी-कभी तो यह आंधी या भूकंप की तरह मानव के अंतरात्मा में उफान लाते हुए आ पहुंचती है ! इसकी क्रोध पूर्ण मुखाकृतियां उतनी ही आशिषस्वरूप है जितनी कि इसकी आनंद फैलाने वाली मुस्कानें ! जब कभी यह जोर से पीड़ा पहुंचाती है तब वह केवल निद्रित एवं आलसी लोगों को उठाने और जगाने के लिए आवश्यक होती है ! वस्तुतः कृपा के कार्य के बिना जीवन विभिन्न योनिरूप झाड़ियों में फंसा पड़ा रहेगा ,और प्राणी अंधकार में तामस में भटकते ही रह जाएंगे !
*कृपा प्रभु का प्रेम है बरसे चराचर पर सदा !*
*प्रेममय भगवान निरखें जीव को ही सर्वदा !!*
(स्वरचित)
कृपा भगवान का प्रेम है जो जड़ चेतन सब पर बरस रहा है ! इसी के माध्यम से जीव परम सत्य एवं चेतना के अनंत प्रकाश की ओर जाने में सक्षम हो सकते हैं ! इसके आविर्भाव के पूर्व यहां की प्रत्येक वस्तु गहन अंधकार और जड़ता में निमग्न थी ! कृपास्वरूप प्रेम अवतरित हुआ , सुसुप्त आत्मा जागृत हुआ और क्रमश: अपनी अनंत एवं सनातन चेतना की ओर अग्रसर होने लगा !
*प्रेम की स्वरूपिणी कृपा ही सर्वव्यापिनी है ,*
*प्रेम औ कृपा जीवमात्र पर लुटाती है !*
*सर्वाधारा और सर्वरूपान्तरकारिणी है ,*
*अग-जग में सर्वत्र ही दिखाती है !!*
*यह स्पष्ट है तो यही गुप्त शक्ति बन ,*
*विश्वशक्तियों को नित्य क्रीड़ा कराती है !*
*विद्यमान जीव में है उच्चतम क्रियाशक्ति ,*
*"अर्जुन" कृपा भगवान की लखाती है !!*
(स्वरचित)
प्रेमस्वरूपिणी कृपा सर्वव्यापिनी , सर्वाधारा और सर्वरूपांतरकारिणी है ! यह सर्वत्र है ! यह स्पष्ट एवं गुह्य - समस्त विश्वशक्तियों की जटिल क्रीड़ा के पीछे विद्यमान उच्चतम क्रियाशक्ति है ! यह *भगवत्कृपा* है !