सनातन धर्म में अध्यात्म का बहुत बड़ा महत्व है ! अध्यात्म के द्वारा ही आत्मा और परमात्मा का ज्ञान हो पाता है ! प्रत्येक व्यक्ति को आध्यात्मिक बनने का प्रयास करना चाहिए परंतु यदि मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसे *भगवत्कृपा* पर विश्वास करना होगा , उसे यह मानना होगा कि भगवान ने हमारी सहायता की है , कर रहे हैं और आगे भी अवश्य करेंगे ! यह विश्वास इसलिए होना चाहिए क्योंकि भगवान स्वाभाविक ही परम दयालु है ! जो उनके भरोसे हो जाता है भगवान उसका पूरा पालन पोषण करते हैं ! ऐसा नहीं है कि *भगवत्कृपा* मात्र मनुष्यों पर ही होती है संसार में जितने भी जीव हैं सब पर बराबर *भगवत्कृपा* बरसती है ! यह अलग बात है कि मनुष्य पर यह विशेष होती है ! यह भी आवश्यक नहीं है कि जो भगवान को मानता है उसी पर *भगवत्कृपा* होगी ! जो मनुष्य भगवान से विमुख चलते हैं उन पर भी *भगवत्कृपा* होती है और उनको भी अन्न , जल , वायु आदि मिलता रहता है ! जो दुष्ट लोग भगवान के सिद्धांत से , शास्त्रों से बिल्कुल विपरीत चलते हैं , भगवान की निंदा करते हैं उन पर भी *भगवत्कृपा* होती है और भगवान उनको भी जीवन निर्वाह करने की सामग्री देते हैं , क्योंकि भगवान ने कहा है :--
*सब मम प्रिय सब मम उपजाए !*
*सब तें अधिक मनुज मोहिं भाए !!*
(मानस)
तो जब सब भगवान के ही उत्पन्न किए हुए हैं तो *भगवत्कृपा* मैं भेद कैसे हो सकता है ! भगवान परम दयालु हैं और समस्त विश्व का पालन पोषण करते रहते हैं ! यथा :--
*अयमुत्तमो$यमधमो जात्या रूपेण सम्पदा वयसा !*
*श्लाघ्यो$श्लाघ्यो वेत्थं न वेत्ति भगवाननुग्रहावासरे !*
*अन्त:स्वभावभोक्ता ततो$न्तरात्मा महामेध: !*
*खदिरश्चम्पक इव वा प्रवर्षणं किं विचारयति !!*
(प्रबोध सुधाकर / २५२-२५३)
*अर्थात्:-* किसी पर कृपा करते समय भगवान ऐसा विचार नहीं करते कि जाति , रूप , धन और आयु से उत्तम है या अधम ! स्तुति करने योग्य है या निंदा करने योग्य ! यह अंतरात्मारूप महामेघ आंतरिक भावों का ही भोक्ता है ! *मेघ क्या वर्षा के समय इस बात का विचार करता है कि है खैर है या चंपा* इसलिए *भगवत्कृपा* पर विश्वास करना चाहिए कि हमारी जो आवश्यकता होगी उसको भगवान देंगे ! अभी गीता रामायण आदि शास्त्रों के द्वारा हमें जो बातें मिल रही हैं वह भी केवल *भगवत्कृपा* से ही मिल रही है ॉ संसार के मूल में भगवत कृपा ही है परंतु अलग-अलग माध्यम से मिलती हुई दिखाई देती है ! *जैसे हमें जब पानी की आवश्यकता होती है तो हम लगी हुई तो टोंटी रिसीवर घुमाते हैं , हमको पानी मिलने लगता है परंतु विचार कीजिए कि उस टोंटी में पाइप से पानी आता है , पाइप में टंकी से पानी आता है और टंकी में जल में नदी आदि से आता है ! नदी आदि में जल वर्षा से आता है , वर्षा में जल समुद्र से आता है और समुद्र का जल अग्नि से उत्पन्न होता है ! अग्नि वायु से उत्पन्न होती है , वायु आकाश से उत्पन्न होती है और आकाश परमात्मा की शक्ति से उत्पन्न होता है !* तात्पर्य यह है कि सब के मूल में परमात्मा है , जिनसे यह समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है ! यदि आज हमको मिल रहा है तो *भगवत्कृपा* से ही मिल रहा है ! *भगवत्कृपा* के इन विभिन्न रूपों को समझना होगा ! जिस दिन मनुष्य यह सारी बातें समझ जाता है उस दिन वह यह मानने लगता है कि *भगवत्कृपा* के अलावा संसार में कुछ भी नहीं है | हमें जो कुछ भी प्राप्त हो रहा था वह सब *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त हो रहा है ! भगवान हमारी योग्यता को देखकर कृपा नहीं करते बल्कि वह स्वयं अपनी *अहैतुकी कृपा* हमें दे रहे हैं ! जैसे मां बालक का पालन करती है तो बालक की योग्यता , बल , बुद्धि , विद्या , गुण आदि को देखकर नहीं करती बल्कि वह तो मां होने के कारण बालक का पालन करती है ! वैसे ही भगवान सब के माता-पिता है वह किसी कारण से कृपा नहीं करते ! वे तो अपने स्वाभाविक स्नेह से , कृपा से , सुहृदभाव से हमारा पालन कर रहे ! ऐसे *भगवान की कृपा* का विश्वास प्रत्येक मनुष्य को रखना चाहिए ! क्योंकि :-
*विश्वासं फलति सर्वदा*
विश्वास का ही फल मिलता है ! जितना अधिक विश्वास होता है उतनी ही *भगवतकृपा* अधिक फलीभूत होती है , अनुभव में आती है ! जिससे मनुष्य को शांति मिलती है और अनिश्चितता तथा निर्भयता प्राप्त करके मनुष्य आनंदित रहता है |