यह कटु सत्य है कि *भगवतकृपा* के बिना प्राणी का कल्याण कदापि संभव नहीं है ! इस संसार पर *भगवान की कृपा* तो है ही किंतु इस लोक में सर्व विधि सर्वांगीण समुन्नति का एकमात्र साधन भी *भगवतकृपा* ही है ! उसके बिना सुखों के सभी साधन सर्वथा व्यर्थ हो जाते हैं ! इतना ही नहीं वही सुख के साधन कभी-कभी दुख के कारण बन जाते हैं ! यह स्पष्ट है कि *भगवत्कृपा* ही प्राणिमात्र के लिए इस लोक और परलोक में सुख शांति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है ! *भगवान की कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग है *भगवान की आज्ञा का पालन !* इस संसार में यदि हम किसी की कृपा प्राप्त करना चाहे तो उसका सीधा एवं सरल मार्ग उसका आज्ञापालक बन जाना ही है | कठोर से कठोर हृदय वाले पुरुष में भी निरंतर अपनी आज्ञा का पालन करने वाले व्यक्ति पर दया आ ही जाती है , उनकी कृपा दृष्टि उन पर हो ही जाती है ! तो फिर भगवान तो अत्यंत कोमल स्वभाव वाले हैं यह कृपा क्यों नहीं करेंगे ! *भगवान की कोमलता* तो लोकों में प्रसिद्ध है ! समस्त संसार की ऐश्वर्यमाधुरी अधिष्ठात्री जगज्जननी भगवती परांबा महालक्ष्मी अपने कमल से भी कोमल हाथों से भगवान के श्री चरणारविंदो का संवाहन करने की इच्छा थी जब उनका स्पर्श करने के लिए अग्रसर होती है तब मन ही मन सकुचित जाती है कि कहीं मेरे इन कठोर हाथों से भगवान के चरणों को कोई कष्ट ना हो जाय ! *कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि लौकिक मनुष्यों की तरह भगवान प्रत्यक्ष होकर तो आज्ञा देते नहीं तो फिर भगवान की आज्ञा का पालन कैसे किया जाय ?* ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि हमारे सर्वसुखकारी सनातन धर्म की है एक विशेषता है *उसमें स्वयं भगवान अपने श्री मुख से ही अपनी आज्ञा का स्पष्ट निर्देश देते हैं ! धर्म शास्त्रों में कहे गए भगवद्वाक्य ही भगवान की आज्ञा है इनका पालन करना ही प्रभु की आज्ञा का पालन करना है !* ऐसा करके मनुष्य *भगवत्कृपा* को प्राप्त कर सकता है ! जिस प्रकार एक सेवक अपनी स्वामी की आज्ञा की उपेक्षा करने पर सांसारिक सुखों से वंचित हो जाता है वैसे ही *भगवद्आज्ञा स्वरूप वेद शास्त्र के विधान का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति भी इस लोक और परलोक में कभी किसी भी प्रकार की सुख शांति नहीं प्राप्त कर सकता !* जो वेद शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह ना तो भगवद्भक्त कहलाने का अधिकारी होता है और ना ही वैष्णव होता है ! ऐसे लोगों पर कभी भी *भगवत्कृपा* नहीं होती ! भगवान स्वयं कहते हैं :--
*श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञा यस्तामुल्लंघ्य वर्तते !*
*आज्ञोच्छेदी मम द्रोही मद्भक्तो$पि न वैष्णव: !!*
(वाधूलस्मृति १८९)
*अर्थात:-* भगवान कहते हैं :- शास्त्र प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति मेरी आज्ञा का पालन नहीं करता इसलिए वह मेरा भक्त नहीं बल्कि मेरा द्रोही है फिर उसे वैष्णव कहने का अधिकार कहां से मिल सकता है ! *भगवद्भक्तों* के द्वारा *श्रीभगवत्कृपा* प्राप्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार यथाशक्ति - यथासंभव अपने धर्म का पालन करना चाहिए तथा उसके फल की इच्छा का परित्याग कर अपने किए हुए सत्कर्म धर्म को भगवान के श्री चरणों में अर्पण कर देना चाहिए ! शास्त्र निषिद्ध कर्मों में अपने मन को कभी भ्रमित ना होने देना ही भगवद्भक्तों का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है ! स्वयं भगवान ने अपने भक्तों के इस स्वरूप का स्पष्ट प्रतिपादन किया है :-
*वर्णश्रमाचारवता पुरुषेण पर: पुमान् !*
*विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्तत्तोमकारकम् !!*
(विष्णुपुराण / ३/८/९)
*अर्थात:-* भगवान कहते हैं :- यदि मुझसे प्रेम करना चाहते हो तो अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्तव्य कर्म का अनुष्ठान करो तथा बिना फल की इच्छा रखे उन कर्मों को मेरे चरणों में अर्पित कर दो इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय मुझे संतुष्ट करने का नहीं है | स्पष्ट है कि भगवान के संतुष्ट होने पर ही *भगवत्कृपा* प्राप्त होगी तथा *भगवतकृपा* प्राप्ति से ही सभी दुखों का अन्त और शाश्वत सुख प्राप्त होगा !