आर्त्त भाव से पुकारने पर भगवान बिना पल भर की देरी किये दौड़े चले आते हैं और भक्त पर *अपनी कृपा* लुटा देते हैं ! श्रीमद्भागवत के गज-ग्राह प्रसंग में गज के आर्त्त भाव का मार्मिक चित्रण किया गया है :---
*न मामिमे ज्ञातय आतुरं गजा: ,*
*कुत: करिण्य: प्रभवन्ति मोचितुम् !*
*ग्राहेण पाशेन् विधातुरावृतो-,*
*$प्यहं च तं यामि परं परायणम् !!*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* अहो ! विधाता के इस ग्राहरूप पाश में पड़ने पर अत्यन्त आतुर हुए मुझको , जब ये मेरे साथी हाथी ही नहीं उबार सके तो हथिनियाँ तो कैसे ही छुड़ा सकती हैं ! अत: अब मैं सबके परमाश्रय उन श्रीहरि की ही शरण ग्रहण करता हूँ ! स्तुति सुनकर भगवान पधारे और उन्होने *कृपापूर्वक* अपने दुर्दमनीय सुदर्शन चक्र से ग्राह को मारकर गजेन्द्र का मोक्षण किया ! आतुर और आर्त्त वैसे तो व्याकरण की दृष्टि से भिन्न माने जाते हैं परंतु भाषाशास्त्रीय दृष्टि से आतुर "आर्त्त" से निष्पन्न शब्द है !फलत: शास्त्र की दृष्टि से भी *भगवत्कृपा* को उद्रिक्त करने के लिए आर्त्तभाव की नितांत उपादेयता है , और यह तभी संभव है जब अमानिता का उदय होता है ! मैया यशोदा क्रोध में भरकर बालक कृष्ण को बांधना चाहती थीं ! ओखल में बांधने के लिए अनेक रस्सियां लेकर आई परंतु वे बालक कृष्ण को बांधने के उपाय में सफल नहीं हुईं ! *मैं बालक को बाँध दूँगी* यह भाव उनके मन में आ गया ! यह अभिमान जैसे ही यशोदा मैया के मन में प्रकट हुआ वैसे ही मानहारी भगवान की माया प्रारम्भ हो गयी :--
*ऊखल से कुंवर कन्हाई को ,*
*बांधने यशोदा लगी वहीं !*
*पर मायापति की माया से ,*
*वह रस्सी पूरी हुई नहीं !!*
*अब तो दूसरी तीसरी या ,*
*चौथी पांचवी डोर आई !*
*पर नंदनंदन के हाथों में ,*
*पूरी न गांठ आने पाई !!*
*सनई लग गई शिराओं में ,*
*पुहनी भर गई पुछल्लों में !*
*रह गई निठल्ली सी मैया ,*
*जब रही ना डोर मोहल्लों में !!*
इस प्रकार जब पूरे मोहल्ले की रस्सी समाप्त हो गई और मैया के मन का मान थक गया तब मैया यशोदा मानरहित होकर आर्त्तभाव में आ गई ! जैसे ही माँ का मान गया वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण स्वयं बँध गये ! भगवान बंधें तो कैसे बंधे ? उनकी ऐश्वर्यशक्ति उन्हें बंधन में डालने के लिए क्या कभी आदेश देती थी ? नहीं ! कभी नहीं ! इस रहस्य का उद्घाटन बड़े सुंदर ढंग से किया गया है :---
*भजज्जनपरिश्रमो निजकृपा चेति द्वाभ्यामेवायं बद्धो भवति नान्यथेति ! यावत् तदद्वयानित्पत्तिरासीत् तावदेव दाम्नां द्वयंगुलिन्यूनता$$सीत् ! सम्प्रत्युभयमेव जातमिति पुनरुद्यममात्रे तया क्रियमाण एव बन्धनमुररीचकार !!*
(आनन्दवृन्दावनचम्पू)
*अर्थात् :-* भक्त का *भजन परिश्रम* एवं सर्वेश्वर की *स्वनिष्ठकृपा* इन दोनों के व्यक्त होने पर ही सर्वेश्वर बंधन स्वीकार करते हैं ! इनके अतिरिक्त उन्हें बांधने का अन्य कोई साधन नहीं है ! उन्हें बांधने के लिए उपनीत डोरियां इसकी सूचना अपनी तो अंगुली की न्यूनता के द्वारा दे रही थी ! जब भगवान ने भक्तिरूपमयी माता का परिश्रम देखा तब उनकी *कृपाशक्ति* का सद्य: आविर्भाव हुआ और वे स्वत: बंधन में आ गए ! *कृपाशक्ति* के आने पर श्री कृष्ण चंद्र की अन्य समस्त शक्तियां या तो छुप जाती हैं या आवश्यकता होने पर उसी का अनुगमन करती हैं ! *इस संदर्भ का निष्कर्ष* यही है कि *भगवान की कृपाशक्ति* को जागृत तथा उद्बुद्ध करने के लिए भक्त में *भजन परिश्रम की नितांत आवश्यकता है !* जब तक वह भगवान के भजन में परिश्रम नहीं करता उस में अपनी पूरी शक्ति नहीं लगाता तथा तटस्थ वृत्ति से ही भजन में निमग्न रहता है तब तक उनकी *नैसर्गिकी कृपाशक्ति* का आविर्भाव नहीं होता और *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं हो पाता