*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान की ओर बढ़ना पड़ेगा , अपना हाथ उनकी और बढ़ाना पड़ेगा ! जब हम अपना हाथ उनकी ओर बढ़ायेंगे तो वे दौड़कर हमारा हाथ पकड़ लेंगे क्योंकि भगवान स्वयं कहते हैं:-
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः !!*
(गीता ४/११)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं :- हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं , मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं ! जिस प्रकार से भगवान का भजन होगा उसी प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्त होगी !
*दृष्टांत रूप में एक कथानक प्रस्तुत है:-*
एक बालक घर में सो रहा था उसकी मां जल भरने कुएँ पर चली गई ! मां के जाने के बाद बालक की नींद पूरी हुई उसने देखा कि मां घड़े में पानी लेकर आ रही है तो वह उठकर मां की ओर चल पड़ा ! बाहर तेज धूप थी ! धूप से तपी जमीन पर बालक के कोमल कोमल पैर जल रहे थे , पर इसको ध्यान न देकर बालक मां के पास पहुंच कर खड़ा होकर रोने लगा ! मां के सिर पर घड़ा रखा हुआ था वह झुक कर बालक को कैसे उठाये ! इसलिए माँ ने उससे कहा :- तू अपना हाथ थोड़ा सा ऊँचा कर दे ! बालक ने हाथ ऊंचा नहीं किया उल्टे वह दुलार में नीचे लेट गया और कहने लगा ! तू मुझे छोड़कर क्यों चली गई ? अब गरम जमीन से उसका शरीर जलता है और वह रोता है ! मां ने फिर कहा कि तू अपना थोड़ा हाथ ऊंचा कर दे मैं तुझको उठा लूं ! पर वह मां की बात सुनता ही नहीं ! सर पर खड़ा होने के कारण झुकने में माँ असमर्थ थी अत: बेचारी बालक को वहीं छोड़कर घड़ा लेकर घर चली आई ! बालक उठकर पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आया ! *विचार कीजिए अगर वह थोड़ा सा हाथ ऊंचा कर देता तो उसमें उसका क्या अपमान होता ? क्या परिश्रम होता ? योग्यता की जरूरत होती है ? परंतु उसने हाथ ऊपर नहीं किया* तो माँ ने उसको नहीं उठाया ! इसी प्रकार भगवान भी हमें गोद में लेने के लिए तैयार खड़े हैं केवल हमें थोड़ा सा हाथ ऊंचा करना है अर्थात भगवान के सम्मुख होना है ! भगवान के सम्मुख होने पर करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते है यथा :--
*सनमुख होहिं जीव मोहिं जबहीं !*
*जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं !!*
(मानस)
हमें *भगवत्कृपा* की तरफ देखना है और हे नाथ ! मेरे नाथ !! कहकर भगवान को पुकारना है ! पुकारने मात्र से भगवान कल्याण कर देते हैं और पहले किए गए पापों की ओर नहीं देखते ! भगवान ने यह नहीं विचार करते कि इसने जीवन में कितना अन्याय किया है , मेरे विरुद्ध कितना चला है क्योंकि भगवान का स्वभाव ही है कृपा करने वाला है :--
*जन अवगुन प्रभु मान न काऊ !*
*दीनबंधु अति मृदुल स्वभाऊ !!*
(मानस)
भगवान का स्वभाव मृदुल है ! वे अपने भक्तों के हजार दोषों को भूल कर के उसे अपनाने के लिए तैयार बैठे हैं क्योंकि हमारे भगवान हैं ही ऐसे कि:--
*रहति न प्रभु चित चूक किए की !*
*करत सुरत सय बार हिए की !!*
(मानस)
बालक की गलती मां को थोड़े ही याग रहती है बालक मां के कितना ही विपरीत चले पर उसके सामने आते ही मां को कुछ याद नहीं रहता और बड़े प्यार से उसको गोद में ले लेती है ! इसी तरह भगवान को भी हमारे अपराध याद नहीं रहते ! *भगवत्कृपा* की शीतल छाँव भक्तों को मिलती ही है | फोटो खिंचवाने के लिए कैमरे के सामने जाना पड़ता है , जो कैमरे के सामने जाता है कैमरा उसके रूप को पकड़ लेता है ! जो जैसा होता है उसकी वैसे ही फोटो निकलती है ! परंतु भगवान का कैमरा दूसरे प्रकार का है ! हम भजन करते हैं तो इस भाव को भगवान पकड़ते हैं , पर हम जब भूल करते हैं , उल्टा चलते हैं तो उसको भगवान पकड़ते ही नहीं ! इसने मेरा नाम लिया है , यह मेरी शरण हुआ है , इसने मेरी और मेरे भक्तों की कथा सुनी है , सत्संग किया है , यह बातें तो भगवान के कैमरे में छप जाती है परंतु विरुद्ध बातें विलोपित हो जाती है ! भगवान उन विरुद्ध बातों को भुलाकर एक बार प्रेम से लिए गए नाम के बस में हो कर *भगवत्कृपा* बरसाते हुए भक्तों को अपनी शरण में ले लेते हैं ! यह है *भगवत्कृपा* का रहस्य !