मनुष्य जाने - अनजाने में अनेक प्रकार के पाप करता रहता है ! इन पापों का विनाश *भगवत्कृपा* से ही सम्भव है ! *भगवत्कृपा* का पाप नाशक होना भी उसका वैशिष्ट्य है कहा जाता है कि *भगवत्कृपा* पापहारिणी शक्ति है ! यह पापों का हरण भी बहुत ही सरल ढंग से हो जाता है ! अधिक कुछ न करके मात्र भगवान का भजन करना ही सबसे सरल मार्ग है ! भगवान् भजन करने वालों में अनासक्तभाव प्रदर्शित करते हुए दुराचारी को भी शाश्वत शान्ति प्राप्त होने की घोषणा भगवान स्वयं करते हैं :---
*अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् !*
*साधुरेव से मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: !"*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है ; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है ! अर्थात् उसने भली-भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ! इस भगवद्वाणी से यह सिद्ध हो जाता है कि *भगवत्कृपा* की महिमा कितनी महत्वपूर्ण है और उसमें कितना अद्भुत परिवर्तन ला सकती है ! *भगवत्कृपा* का यह अप्रतिम चमत्कार है ! इसीलिए कहा जाता है कि:--
*अमृत को छोड़ के ,जहर काहे पीजै !*
*राम नाम लीजै सदा मौज कीजै !,*
*मीठा राम नाम है मीठी राम की कथा !*
*मीठा राम रूप से और कौन है बता !!*
*बोलो इस मिठास पर कौन नहीं रीझै !*
*राम नाम लीजै सदा मौज कीजै !!*
(स्वरचित)
अशरण शरण भगवान की श्रद्धा पूर्वक एकात्मभाव से शरण ग्रहण करने पर *भगवत्कृपा* अपने प्रभाव को प्रकट करती है और शरणापन्न के दुर्गुणों को दूर कर उसे सद्गुणों का धाम बना देती है ! और इस प्रकार पाप और दुर्गुण के अनिवार्य परिणाम अधोगति से बचा लेती है !
*पाप पुन्य में रात दिन जीवन रहा बिताय !*
*फिर भी मुख से हाय रे , राम नहीं कहि जाय !!*
(स्वरचित)
*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान का नाम लेना ही बहुत है ! भगवान का नाम लेने वालों को भवसागर से पार जाने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास करना ही नहीं पड़ा है ! यथा:--
*पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं !*
*बिनु प्रयास भवसागर तरहीं !!*
(मानस)
भगवान का नाम लेने मात्र से *भगवत्कृपा* का पात्र बना जा सकता है ! जब मनुष्य निर्मल मन एवं निश्छल भाव से साधनामार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसका मार्ग प्रशस्त होता चला क्योंकि अंतर्यामी होने के कारण साधनामार्ग में आगे बढ़ने के लिए साधक की आवश्यक वस्तुओं का योगक्षेम स्वयं वहन करते हैं और उसकी याचना पर भी उसे साधनमार्ग से अलग करने वाली वस्तु प्रदान नहीं करते ! अतः साधना के मार्ग में दृढ़ रहने के लिए *भगवत्कृपा* ही साधक का मुख्य आधार है ! *भगवत्कृपा* के बिना साधनमार्ग में प्रगति नहीं हो सकती ! अतएव भक्त को अन्य अवलंबन छोड़कर केवल *भगवत्कृपा* का ही अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए ! *भगवत्कृपा* का वैशिष्ट्य अनंत अपार एवं असीम है यहाँ तो उसका दिग्दर्शन मात्र कराने का प्रयास किया गया है ! *भगवत्कृपा* की महिमा का वर्णन कर पाना लेखनी के सीमा के बाहर का विषय है परंतु फिर भी सूक्ष्म प्रयास के द्वारा *भगवत्कृपा* के वैशिष्ट्य की झलक दिखाने का प्रयास मात्र किया जा रहा है !